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१. मनुष्यगति २. देवगति ३. पंचेन्द्रिय तिर्यचगति ४. औदारिकशरीर . ५. वैक्रियशरीर ६. आहारकशरीर ७. तेजस्शरीर ८. कार्मणशरीर ६. समचतुस्रसंस्थान १०. वज्रऋषभनाराचसंहनन ११. औदारिक अंगोपांग १२. वैक्रिय अंगोपांग १३. आहार अंगोपांग १४. प्रशस्त वर्ण १५. प्रशस्त गन्ध १६. प्रशस्त रस १७. प्रशस्त स्पर्श १८. मनुष्यानुपूर्वी १६.. देवानुपूर्वी २०. अगुरूलघु २१. पराघात २२. उच्छवास २३. आतप २४. उद्योत २५. प्रशस्त विहायोगति २६. त्रस २७. बादर २८. पर्याप्त २६. प्रत्येक ३०. स्थिर ३१. शुभ ३२. सुभग ३३. सुस्वर ३४. आदेय ३५. यशकीर्ति ३६. निर्माण ३७. तीर्थंकर नामकर्म अशुभ नामकर्म के ३४ भेद निम्न हैं
१. नरकगति २. तिर्यंचगति ३. एकेन्द्रिय ४. द्वीन्द्रिय ५. त्रीन्द्रिय ६. चतुरिन्द्रिय ७. ऋषभनाराच संहनन ८. नाराच संहनन ६. अर्धनाराच संहनन : १०. कीलिका संहनन ११. सेवार्तक संहनन १२. न्यग्रोध परिमंडल संस्थान, १३. सादि संस्थान १४. वामन संस्थान १५. कुब्जक संस्थान १६. हुण्डक संस्थान १७. अप्रशस्तवर्ण १८. अप्रशस्त गन्ध १६. अप्रशस्त रस २०. अप्रशस्त स्पर्श २१. नरकायुनुपूर्वी २२. तिर्यंचायुनुपूर्वी २३. उपघात २४. अप्रशस्तविहायोगति २५. स्थावर २६. सूक्ष्म २७. साधारण २८. अपर्याप्त २६. अस्थिर ३०. अशुभ ३१. दुर्भग ३२. दुस्वर ३३. अनादेय और ३४. अयशकीर्ति। नामकर्म - बन्धन के कारण
भगवतीसूत्र में शुभनामकर्म अर्थात् प्रभावशाली व्यक्तित्व. की उपलब्धि के निम्न चार कारण प्रतिपादित किये गये हैं - (१) शरीर की सरलता (कोमलता) (२) वाणी की सरलता; (३) विचारों की सरलता और (४) सामंज्यस्यपूर्ण जीवन। इससे विपरीत निम्न प्रकार के अशुभाचरण से व्यक्ति अशुभनामकर्म का बन्धन करता है- (१) शरीर की वक्रता; (२) वचन की वक्रता; (३) मन की वक्रता और (४) अहंकार, मात्सर्य वृत्ति या असामंजस्यपूर्ण जीवन। तत्त्वार्थसूत्र में भी नामकर्म के बन्धन के कारण प्रायः पूर्वोक्त ही दिये गये हैं।"
(७) गोत्रकर्म गोत्रकर्म के माध्यम से व्यक्ति प्रतिष्ठित एवं अप्रतिष्ठत कुलों में जन्म लेता है। इस कर्म की तुलना कुम्भकार से की जाती है। जैसे कुम्भकार
४० भगवती- ८/९/४२६ एवं ४३० ४१ तत्त्वार्थसूत्र - ६/२१ एवं २२ ।
- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड २, पृष्ठ ३८५)।
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