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तत्त्वार्थसूत्र एवं कर्मग्रन्थ में भी चारों गतियों के प्रायः ये ही कारण माने गये हैं। इस प्रकार अधम गुणों वाला नरकं एवं तिर्यंचगति, मध्यम गुणों वाला मनुष्यगति, एवं उत्तम गुणों वाला जीव देवगति को प्राप्त होता है।
(६) नामकर्म जिस कर्म के उदय से जीव अनेकविध शारीरिक अवस्थाओं को प्राप्त करता है, वह नामकर्म कहलाता है। मनोविज्ञान की भाषा में नामकर्म को व्यक्तित्व के निर्धारण का कारण माना जा सकता है।
नामकर्म को चित्रकार की उपमा दी जाती है। जैसे चित्रकार विभिन्न रंगों से अनेक प्रकार के चित्र बनाता है, उसी प्रकार नामकर्म विभिन्न कर्म परमाणुओं से जगत के प्राणियों के शरीर की रचना करता है।
उत्तराध्ययनसूत्र में नामकर्म के मुख्यतः दो भेद प्रतिपादित किए गये हैं- शुभनामकर्म एवं अशुभनामकर्म। इसमें यह भी कहा गया है कि शुभ एवं अशुभ दोनों के अनेक भेद होते हैं, किन्तु इन भेदों का नामोल्लेख नहीं किया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र की टीकाओं में शुभनामकर्म के 37 एवं अशुभनामकर्म के 34, इस प्रकार कुल 71 भेद किये हैं। ... नामकर्म के ये 71 भेद मध्यमविवक्षा से किये गये हैं। उत्कृष्टविवक्षा · से इसके 103 भेद होते हैं, किन्तु टीकाओं में नामकर्म के 71 भेदों के ही नाम मिलते
... शुभनामकर्म के 37 भेद निम्न हैं
- उत्तराध्ययनसूत्र ३३/१३ ।
३६ (क) तत्त्वार्थसूत्र - ६/१६,१७,१८,१९ व २० ।
(ख) कर्मग्रन्थ-१/५७, ५५ व ५६। ३७ 'नामकम्मं तु दुविहं, सुहमसुहं च आहियं ।
सुहस्स उ-बहूमेया, एमेव असुहस्स वि ॥' .३९ उत्तराध्ययनसूत्र टीका (आगम पंचांगी क्रम ४१/१) -
(क) पत्र - ३१६५ (ख) पत्र - ३१६२
(ग) पत्र - ३१६५ ३६ उत्तराध्ययनसूत्र टीका।
- (गणिभावविजय जी) - (शान्त्याचाय); - (लक्ष्मीवल्लभगणि)।
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