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________________ आयुष्यकर्म का स्वरूप कारागृह के समान बताया गया है। जैसे कारागृह में पड़ा अपराधी अवधि पूर्ण हुए बिना वहां से निकल नहीं सकता, वैसे ही आयुष्यकर्म की अवधि पूर्ण हुए बिना जीव शरीर का त्याग नहीं कर सकता। उत्तराध्ययनसूत्र में आयुष्यकर्म के चार प्रकार बतलाये गये हैं 34 नारकीय जीवों द्वारा भोगी जाने वाली आयुः (१) नरकायु (२) तिर्यंचा तिर्यच - जीवों (पशु, पक्षी) के द्वारा भोगी जाने वाली आयु मनुष्य द्वारा भोगी जाने वाली आयु देवों द्वारा भोगी जाने वाली आयु । (३) मनुष्यायु (४) देवायु २२८ प्रत्येक गति के आयुष्यकर्म स्थानांगसूत्र में इनका स्पष्ट विवरण प्राप्त होता है। 35 (१) नारकीयजीवन की प्राप्ति के कारण (१) महारम्भ - अत्यधिक हिंसक क्रूर कर्म (२) महापरिग्रह - अत्यधिक संचयवृत्ति; (३) पंचेन्द्रिय- जीवों का वध और (४) मांसाहार, शराब आदि नशीले पदार्थों का सेवन । ३४ 'नेरइय तिरिक्खाउ, मनुस्साउ तहेव यं । देवाउयं चउत्थं तु, आउकम्मं चउब्विहं ।। ३५ स्थानांग ४/६२८ से ६३१ (२) तिर्यचायु की प्राप्ति के कारण (१) छल-कपट (२) रहस्यपूर्ण आचरण अर्थात् दुष्कर्मों को छिपाने की वृत्ति (३) असत्यभाषण और (४) कम ज्यादा मापतौल । (३) मानवजीवन की प्राप्ति के कारण (१) प्रकृति भद्रता अर्थात् स्वाभाविक सरलता; (२) विनयशीलता; (३) करूणा और (४) अहंकार, मात्सर्य आदि दुर्गुणों का अभाव । (४) देवायु की प्राप्ति के कारण (१) सरागसंयम (२) आंशिक सयंम / देशविरति (३) बालतप ( इसे अज्ञान तप भी कहा जाता है) और (४) अकामनिर्जरा - स्वाभाविक रूप से कर्मों की निर्जरा । Jain Education International बन्धन के भिन्न-भिन्न कारण हैं। उत्तराध्ययनसूत्र ३३ / १२ । - ( अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ६७६ ) । . For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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