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भेदों/नामों का उल्लेख नहीं हैं, किन्तु उत्तराध्ययनसूत्र की टीकाओं में इनके नामों का उल्लेख मिलता है जो निम्न हैं -
कषाय मूलतः चार हैं - क्रोध, मान, माया एवं लोभ। इन चारों में प्रत्येक के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन रूप भेद करने पर कषाय के सोलह भेद हो जाते हैं।
___उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकार शान्त्याचार्य के अनुसार जो कषाय के सहयोगी भाव हैं, वे नोकषाय हैं। इनके नौ भेद हैं- (१) हास्य; (२) रति, (३) अरति, (४) शोक, (५) भय, (६) जुगुप्सा, (७) स्त्रीवेद, (८) पुरूषवेद और (६) नपुंसकवेद।
नोकषाय के उपर्युक्त नौ भेद सामान्य की अपेक्षा से किये गये है। किन्तु व्यक्तिविशेष की अपेक्षा से तो सात ही भेद. होंगे, क्योंकि हास्यादि षट्भेदों के साथ तीनों वेद (कामवासना) में से एक वेद का ही उदय रहेगा। इस प्रकार कुल मिलाकर मोहनीयकर्म के 26 एवं 28 भेद हुए। मोहनीयकर्मबन्ध के कारण
__सामान्यतया मोहनीयकर्म का बन्ध निम्न कारणों से होता हैं - , क्रोध, मान, माया, लोभ, अविश्वास और अविवेक ।
५. आयुष्यकर्म शरीरविशेष के साथ आत्मा के रहने की अवधि का निर्धारण करने वाला कर्म आयुष्यकर्म कहलाता है। जीव को किसी शरीर में नियत अवधि तक कैद रखने वाला कर्म आयुष्य कर्म है ।
३२ उत्तराध्ययनसूत्र टीका (आगमपंचांगी क्रम ४१/५)
(क) पत्र - ३१६१ (ख) पत्र - ३१६७
(ग) पत्र -३२०१ ३३ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ६४३
- (शान्त्याचाय); - (लक्ष्मीवल्लभगणि); - (कमलसंयमोपाध्याय)।
- (शान्त्याचार्य) .
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