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________________ (२) मिथ्यात्वमोहनीय - लक्ष्मीवल्लभगणि उत्तराध्ययनसूत्र की टीका में इसके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि सम्यक्त्व का आवरण मिथ्यात्वमोह है। इसमें मिथ्यात्वमोह के अशुद्ध कर्मदलिकों का आत्मा पर प्रभाव रहता है। इसके परिणामस्वरूप तत्त्व में अतत्त्वरूचि उत्पन्न होती है और अंतत्त्व में तत्त्वरूचि इस प्रकार वस्तुस्वरूप का विपरीतरूप में बोध होना मिथ्यात्वमोहनीय है। 29 २२६ (३) मिश्रमोहनीय- मिश्रमोह का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लक्ष्मीवल्लभगणि लिखते हैँ कि यह मिथ्यात्व का शुद्धाशुद्ध रूप होता है। इस अवस्था के अन्दर न तो जिनधर्म के प्रति पूरी तरह रागभाव होता है और न द्वेषभाव । इसकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त होती है। जैसे किसी ऐसे द्वीप का निवासी जो हमारे द्वीपवासियों से परिचित नहीं है; वह न तो उन जीवों पर राग रखता है और नही द्वेष । इस प्रकार का स्वभाव मिश्रमोहनीय कहा जाता है। * उत्तराध्ययनसूत्र की टीका में मोहनीयकर्म के शुद्ध कर्मदलिकों की उपस्थिति सम्यक्त्वमोहनीय है। सम्यक्त्व के अज्ञान को सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्व के अज्ञान को मिथ्यात्वमोहनीय तथा दोनों के मिश्रित अज्ञान को मिश्रमोहनीय भी कहा है। इसकी व्याख्या इस प्रकार से भी की जा सकती है- जिसमें मिथ्यात्व को मिथ्यारूप में तथा सम्यक्त्व को सम्यक् रूप में नहीं माना जाता है वह मिथ्यात्वमोहनीय है। इसके विपरीत मिथ्यात्व के स्वरूप को तो जान लिया जाता है किन्तु सम्यक्त्व के स्वरूप को नहीं जाना जाता है वह सम्यक्त्व मोहनीय है तथा सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व दोनों की ही अनिश्चयरूप स्थिति मिश्रमोहनीय है। चारित्रमोहनीय कर्म आचरण को विकृत करने वाला कर्म चारित्रमोहनीयकर्म है। यह कर्म विरति यां त्याग में बाधा डालता है। इस कर्म के उदय से व्यक्ति सत्य को समझकर भी उसके अनुरूप आचरण नहीं कर पाता है। उत्तराध्ययनसूत्र में इसके मुख्य दो भेद किए गये हैं? – (१) कषायमोहनीय और (२) नोकषायमोहनीय। - कषायमोहनीय के सोलह एवं नोकषायमोहनीय के सात या अपेक्षा भेद से नौ भेद किए गये हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में कषाय एवं नोकषाय के २६ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३१६७ ३० उत्तराध्यपनसूत्र टीका पत्र ३१६७ ३१ 'चरित्तमोहणं कम्मं, दुविहं तु वियाहियं । कसाय मोहणिज्ज तु, नोकसायं तहेव य ।।' Jain Education International - (लक्ष्मीवल्लभगणि) । - ( लक्ष्मीवल्लभगणि) उत्तराध्ययनसूत्र ३३/१० । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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