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________________ २२५ वेदनीयकर्म के बन्धन के कारण जीव अनुकम्पा, व्रती अनुकम्पा, दान, सरागसंयम, अकामनिर्जरा, बालतप, क्षमा और पवित्रता, सातावेदनीयकर्म के कारण हैं। ____ अपने में, दूसरे में या दोनों में विद्यमान दुखः, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिवेदन असातावेदनीयकर्म बन्धन के कारण हैं। ४. मोहनीय कर्म जो कर्म आत्मा के विचार एवं आचार पक्ष को विकृत करता है । अथवा जो कर्स आत्मा के सम्यक्त्व और चारित्र गुण का घात करता है वह मोहनीयकर्म है। दूसरे शब्दों में जिस कर्म के कारण जीव की दृष्टि/सोच/चिन्तन एवं आचरण दूषित होता हो वह मोहनीयकर्म है। उत्तराध्ययनसूत्र में मोहनीयकर्म के दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय, ऐसे दो मुख्य भेद हैं। इनके अवान्तर २६ या २८ भेद हैं। दर्शनमोहनीय कर्म दर्शनमोहनीय कर्म में प्रयुक्त 'दर्शन' शब्द का अर्थ दृष्टिकोण अथवा श्रद्धा है। जैनदर्शन में 'दर्शन' शब्द के मुख्यतः चार अर्थ किये गये हैं- (१) आत्मानुभूति; (२) प्रत्यक्षीकरण; (३) दृष्टिकोण और (४) श्रद्धा। इनके प्रथम दो अर्थों का सम्बन्ध दर्शनावरणीयकर्म से है तथा अन्तिम दो अर्थों का सम्बन्ध मोहनीयकर्म से है। दर्शनमोहनीकर्म के निम्न तीन भेद किए गए हैं (१) सम्यक्त्वमोहनीय- सम्यक्त्वमोहनीय का स्वरूप विशेष चिन्तनीय है, क्योंकि इसमें एक ओर सम्यक्त्व शब्द है जो कर्मनिर्जरा/मुक्ति का अमोघ उपाय है तो दूसरी ओर मोहनीय कर्म है जो कर्मों का केन्द्ररूप है। इसका शाब्दिक अर्थ होगा सम्यक्त्व के प्रति होने वाला मोह। इस प्रकार सत्य का आग्रह सम्यक्त्वमोहनीय कहा जा सकता है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो दृष्टिकोण की आंशिक विशुद्धि सम्यक्त्व मोहनीय है। २८ उत्तराध्ययनसूत्र ३३/८ से ११ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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