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________________ का कौन खण्डन कर सकता है ? इन सब के उपरान्त भी कर्मसिद्धान्त को एकान्त रूप से नियतिवादी नहीं कहा जा सकता है। डॉ. राधाकृष्णन् ने भी नियति एवं पुरूषार्थ दोनों को समन्वयात्मक रूप में प्रस्तुत करते हुये लिखा है कि 'स्वतन्त्रता का अर्थ स्वच्छन्दता नहीं है और न ही कर्म का अर्थ नियति। मानव जब अपनी इच्छा से चुनाव करता है तो वह बिना किसी प्रयोजन या कारण के. नहीं करता। यदि हमारे कर्मों का अतीत के साथ कोई सम्बन्ध न हो तो हम पर अपने आप में सुधार करने की न तो कोई नैतिक जिम्मेदारी होगी और न गुंजाइश जैन कर्मसिद्धान्त में नियतिवाद एवं पुरूषार्थवाद दोनों के तत्त्व किस रूप में सन्निहित हैं; इसे सुस्पष्ट करते हुये कहा गया है कि 'जैन कर्मसिद्धान्त को एकान्त रूप से नियतिवाद या निर्धारणवाद नहीं कहा जा सकता है। जैन कर्मसिद्धान्त यह अवश्य मानता है कि व्यक्ति का प्रत्येक संकल्प व उसकी प्रत्येक क्रिया अकारण नहीं होती। उसका कारण पूर्ववर्ती कर्म हैं। हमारे मनोभाव और तद्जनित कर्म पूर्वकर्म के परिणाम होते हैं, लेकिन इतने मात्र से कर्मसिद्धान्त को नियतिवाद मान लेना संगत नहीं होगा; क्योंकि कर्मसिद्धान्त व्यक्ति की समग्र स्वतन्त्रता का अपहरण नहीं करता। जैनदर्शन में अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, केवलीसमुद्घात के प्रत्यय कर्मनियम के ऊपर व्यक्ति की स्वतन्त्रता के समर्थक हैं। पूर्वोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो चुका है कि जैन कर्मसिद्धान्त में नियतिवाद एवं पुरूषार्थवाद दोनों को प्रश्रय दिया गया है। अतः हम यह कह सकते. हैं कि उत्तराध्ययनसूत्र में वर्णित कर्मसिद्धान्त में कर्म के कर्तृत्व के सन्दर्भ में स्वतन्त्रता एवं उसके भोक्तृत्व के सन्दर्भ में नियतता को स्वीकार करके इन दोनों अवधारणाओं का समन्वय किया गया है। ६३ 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' १७४ - उद्धृत 'जैन कर्मसिद्धान्त उद्भव एवं विकास', पृष्ठ १७६- डॉ. रवीन्द्रनाथ मिश्र । ६४ 'जीवन की आध्यात्मिक दृष्टि' पृष्ठ ३५० - डॉ. राधाकृष्णन् ६५ 'जैन, बौद्ध एवं गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १, पृष्ठ २८१ - डॉ. सागरमल जैन । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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