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________________ दूसरी परम्परा को स्वीकार कर लेता है, जबकि निन्हव उसी परम्परा में रहकर उसके सिद्धान्तों की स्वेच्छा से व्याख्या करता है। (३) मात्सर्य- ज्ञानी के प्रति ईर्ष्या का भाव रखना तथा ज्ञान के साधन पुस्तक आदि के प्रति उपेक्षा एवं अनादर की वृत्ति रखना मात्सर्य है। (४) अन्तराय- ज्ञान की प्राप्ति में बाधक बनना, ज्ञान के प्रचार एवं प्रसार के साधनों का विरोध करना, अपने पास ज्ञान के साधन पुस्तक वगैरह होने पर किसी अध्येता को न देना, अध्ययन करने वाले को उठाना, उसे अन्य कार्य में लगाना, कोई अध्ययन कर रहा हो तो जोर से बोलकर तथा अन्य प्रवृत्तियों से उसके अध्ययन में विघ्न या अन्तराय उपस्थित करना अन्तराय दोष है। . (५) आसादनम्- ज्ञान एवं ज्ञानी पुरूषों के कथन को स्वीकार नहीं करना, उनका समुचित विनय नहीं करना, ज्ञान के साधन का अपमान करना, थूक लगाकर पृष्ठ पलटना, कागज पर पैर लगाना, उस पर बैठना, खाना तथा उससे कूड़ा-करकट साफ करना आदि इसके अन्तर्गत आता है। . (६) उपघात- ज्ञानी के साथ मिथ्याग्रह या कदाग्रह करना अथवा स्वार्थवश सत्य को असत्य सिद्ध करने का प्रयास करना उपघात कर्म है। . पूर्वोक्त अनैतिक आचरणों के द्वारा ज्ञानावरणीयकर्म के परमाणु आत्मा के साथ सम्पृक्त होकर उसकी ज्ञानशक्ति को आवृत, विकृत एवं सीमित करते हैं। (२) दर्शनावरणीयकर्म वस्तु की सत्तामात्र की प्रतीति कराने वाला निर्विशेष सामान्यज्ञान 'दर्शन' कहलाता है तथा जो कार्मणवर्गणायें आत्मा की दर्शनशक्ति अर्थात् सामान्य अनुभूति में बाधक बनती हैं, वे दर्शनावरणीयकर्म कहलाती हैं। उत्तराध्ययनसूत्र की टीका में इसकी तुलना द्वारपाल से की गई है। जैसे द्वारपाल राजा के दर्शन में बाधक होता है, वैसे ही दर्शनावरणीयकर्म आत्मा की अनुभूति में बाधक बनता है। (ग) कर्मग्रन्थ प्रथम भाग गाथा ५४ । १५ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३१६५ - (लक्ष्मीवल्लभगणि) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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