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(५) केवलज्ञानावरण- पूर्ण ज्ञानशक्ति को आवृत करने वाले ‘कर्मपुद्गल'
केवलज्ञानावरण हैं।
समस्त जीवों में मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान ये दो ज्ञान अनिवार्य रूप से पाये जाते हैं और ये दोनों ज्ञान क्षायोपशमिक हैं। अतः इन पर पूर्ण आवरण नहीं होता। विपाक की दृष्टि से ज्ञानावरणीयकर्म के निम्न १० भेद भी किए गये हैं -
(१) सुनने की शक्ति का अभाव; (२) सुनने से प्राप्त होने वाले ज्ञान की अनुपलब्धि; (३) देखने की शक्ति का अभाव; (४) दृश्य ज्ञान की अनुपलब्धि, (५) गंध ग्रहण करने की शक्ति का अभाव; (६) गंध सम्बन्धी ज्ञान की अनुपलब्धि (७) स्वाद ग्रहण करने की शक्ति का अभाव; () स्वाद सम्बन्धी ज्ञान की अनुपलब्धि; (६) स्पर्श क्षमता का अभाव; और (१०) स्पर्श सम्बन्धी ज्ञान की अनुपलब्धि।
ज्ञानावरणीयकर्म के उपर्युक्त दस भेद प्रायः मतिज्ञानावरण से ही सम्बन्धित प्रतीत होते हैं।
ज्ञानावरणीयकर्म के बन्धन के कारण
भगवतीसूत्र, तत्त्वार्थसूत्र और कर्मग्रन्थ में ज्ञानावरणीयकर्म के बन्धन के निम्न छ: कारण प्रतिपादित किये गये हैं" - ... (१) प्रदोष- ज्ञान, ज्ञानी एवं ज्ञान के साधनों के प्रति द्वेष रखना, उनका अवर्णवाद/निन्दा करना या उनके प्रतिकूल आचरण प्रदोषकर्म है।
(२) निव- ज्ञानी के उपकार को स्वीकार न करना, ज्ञानदाता गुरू के नाम को छिपाना तथा किसी विषय को जानते हुए भी उसका विपरीत प्ररूपण न करना, निह्नवकर्म है। जमाली आदि सात निन्हव जैनपरम्परा में प्रसिद्ध हैं, जिन्होंने भगवान महावीर के सिद्धान्तों की अपने मनमाने ढंग से प्ररूपणा की थी। यहां निह्नव एवं विरोधी में अन्तर है। विरोधी स्पष्टतः विरोध करता है और
१२ उत्तराध्ययनसूत्र - ३३/४ । १३ द्रव्यानुयोग, प्रथम भाग, भूमिका पृष्ठ ६६ १४ (क) भगवती - ६/६/४२० (ख) तत्त्वार्थसूत्र ६/११;
- डॉ. सागरमल जैन । - (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड २, पृष्ठ ३८४);
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