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(१) ज्ञानावरणीयकर्म आत्मा की ज्ञानशक्ति को आवृत करने वाले कर्मपुद्गल ज्ञानावरणीय कर्म कहलाते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र की टीका में कहा गया है कि जैसे आंखों पर पट्टी बांध देने से आंख की देखने की शक्ति अवरूद्ध हो जाती है, वैसेही ज्ञानावरणीयकर्म से आत्मा की ज्ञानशक्ति आवृत हो जाती है।" इस कर्म का नाम ज्ञानविनाशककर्म नहीं होकर ज्ञानावरणीयकर्म है। इसमें प्रयुक्त 'आवरण' शब्द यह ज्ञापित करता है कि ज्ञानावरणीय कर्म आत्मा के ज्ञान को आवृत करता है; वह ज्ञान का समूलोच्छेदन नहीं करता, जैसे- सघन मेघ से आच्छादित होने पर भी सूर्य का इतना प्रकाश अवश्य बना रहता है; जिससे दिन-रात का बोध हो सके, वैसे ही प्रगाढ़ ज्ञानावरणीयकर्म का बन्ध होने पर भी आत्मा का ज्ञान गुण इतना अवश्य उद्घाटित रहता है, जिससे जीव और अजीव में भेद किया जा सके। निगोद के जीवों में भी अक्षर के अनन्तवें भाग जितना ज्ञान गुण अवश्य उद्घाटित रहता है। .
____ इस प्रकार ज्ञानावरणीयकर्म आत्मा की ज्ञानशक्ति को आवृत एवं विकृत करता है, उसे विनष्ट नहीं करता। दूसरे शब्दों में वह ज्ञान प्राप्ति में मात्र अवरोधक बनता है। उत्तराध्ययनसूत्र में ज्ञान के मुख्य पांच प्रकारों के आधार पर ज्ञानावरणीयकर्म के भी निम्न पांच प्रकार प्रतिपादित किये गये हैं - - (१) श्रुतज्ञानावरण- बौद्धिक एवं आगमिक ज्ञान की क्षमता को अवरूद्ध
करने वाले ‘कर्मपुद्गल' श्रुतज्ञानावरण हैं। (२) मतिज्ञानावरण- ऐन्द्रिक एवं मानसिक ज्ञान की क्षमता को आवृत
तथा विकृत करने वाले कर्मपुद्गल' मतिज्ञानावरण कहलाते हैं। . (३) अवधिज्ञानावरण- मूर्त द्रव्य (पुद्गल) को साक्षात् जानने की शक्ति
को आच्छादित करने वाले ‘कर्मपुद्गल' अवधिज्ञानावरण हैं। (४) मनःपर्यायज्ञानावरण- दूसरों की मानसिक अवस्था को जानने की
शक्ति को कुण्ठित करने वाले ‘कर्मपुद्गल' मनःपर्यायज्ञानावरण कहे जाते हैं।
११ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३१६५
- (लक्ष्मीवल्लभगणि)।
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