________________
२१८
कर्मबन्ध के पूर्वोक्त चारों प्रकारों में प्रकृतिबन्ध एवं प्रदेशबन्ध का आधार योग अर्थात् मन, वचन और काया की प्रवृत्तियां हैं। दूसरे शब्दों में प्रकृतिबन्ध एवं प्रदेशबन्ध का सम्बन्ध योग से है जबकि स्थितिबन्ध एवं अनुभागबन्ध का सम्बन्ध कषाय से है क्योंकि बन्धन की समयावधि एवं रस अर्थात् तीव्रता या मन्दता कषायभाव पर आधारित है। सामान्यतः कर्मबन्ध में प्रकृति आदि चारों की उपस्थिति अनिवार्य है। मात्र सयोगी वीतरागी आत्मा द्वारा होने वाले कर्मबन्ध में प्रकृति एवं प्रदेश ही होते हैं। उनमें स्थिति मात्र एक समय की तथा अनुभाग जघन्य होता है। अतः नहिंवत् होने से वहां प्रकृति एवं प्रदेश की ही प्रधानता होती है।
६.३ कर्म की विभिन्न प्रकृतियां
प्रकृति अर्थात् स्वभाव के आधार पर कर्मों के मुख्यभेद आठ तथा अवान्तरभेद एक. सौ अट्ठावन प्रतिपादित किये गये हैं। कर्मवर्गणा के पुद्गल जब आत्मा के साथ बन्धते हैं तो वे आत्मा के परिणाम/भाव के अनुसार विविध स्वभाव एवं शक्ति वाले हो जाते हैं। ... कर्मपुद्गल एकरूप होते हैं फिर भी ये जिस आत्मगुण को आवृत, विकृत और प्रभावित करते हैं, उनके अनुसार ही उन पुद्गलों का नाम हो जाता है। आत्मा के आठ गुण अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनंतसुख, क्षायिकसम्यक्त्व, अक्षयस्थिति, अरूपीपन, अगुरुलघुता और अनंतवीर्य हैं। आत्मा की मूलभूत शक्तियां आठ हैं। अतः उनके आवारक कर्म भी. आठ हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में कर्मों के निम्न आठ भेदों का उल्लेख किया गया है- (१) ज्ञानावरणीयकर्म (२) दर्शनावरणीयकर्म (३) वेदनीयक (४) मोहनीयकर्म (५) आयुष्यकर्म (६) नामकर्म (७) गोत्रकर्म और (८) अंतराय कर्म।"
"'नाणसावरणिज्ज, सणावरणं तहा ।
वेषणिज्ज तहा मोहं, आउकम्मं तहेव य ।।' 'नामकम्मं च गोयं च, अंतरायं तहेव य। एवमेयाइ कम्माई, अहेव उ समासओ ।'
- उत्तराध्ययनसूत्र ३३/२ एवं ३ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org