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ज्ञानगुण को अच्छादित करने की, कुछ में आत्मा की सामर्थ्य को दबा देने का स्वभाव होता है । इस प्रकार भिन्न-भिन्न कर्मपदगलों में भिन्न-भिन्न प्रकार की आत्मिक शक्तियों के आवरण की क्षमता होती है। इसे ही प्रकृतिबन्ध कहते हैं। इससे कर्मपुद्गलों के स्वरूप (Nature) का निर्धारण होता है।
(२) स्थितिबन्ध - कर्मपुद्गलों को आत्मा के साथ कितने समय तक सम्बन्ध रहेगा है, इसका निर्धारण स्थितिबन्ध करता है अर्थात् इससे यह निश्चय होता है कि आत्मा की ज्ञान, दर्शन आदि की जो शक्तियां आवृत हुई हैं, वे कितने समय या काल के लिए हुई हैं। इस प्रकार आत्मा के साथ कर्मों के सम्बन्ध की काल मर्यादा (Duration) का निर्धारण स्थितिबन्ध कहलाता है।
(३) अनुभागबन्ध (रस) – कर्मों के बन्धन एवं विपाक की तीव्रता तथा मन्दता का निश्चय अनुभागबन्ध के आधार पर होता है। वस्तुतः कर्मबन्धन के समय होने वाले तीव्र एवं मन्द भाव के आधार पर ही कर्मों की तीव्रता या मन्दता का निर्धारण होता है। अनुभागबंध इस बात का द्योतक है कि कर्मबंध के समय जीव के भाव कैसे थे?
यह इस बात का द्योतक है कि कर्मों का बंध संश्लिष्ट भावों में हुआ है या सामान्य भावों में ।
____ उत्तराध्ययनचूर्णि में कर्म के शुभ-अशुभ विपाक को अनुभाग कहा गया है। दूध रूप से समान प्रकृति वाला होते हुए भी भैंस के दूध में चिकनाहट अधिक होती है, बकरी के दूध में कम, इस प्रकार कर्म की प्रकृति की तरतमता का भाग अनुभाग (Degree) है। प्रकृति एवं अनुभाग में यह अन्तर है कि प्रकृति सामान्य है और अनुभाग उसका विशेष जैसे 'आम' नाम के पदार्थ की प्रकृति तो मीठापन है, पर वह कितना मीठा है, कम या अधिक, वह उसका अनुभाग है।
(४) प्रदेशबन्ध - कर्मपुद्गलों की मात्रा का निश्चय प्रदेशबन्ध के आधार पर होता है। भिन्न-भिन्न प्रकार की परमाणु संख्याओं से युक्त कर्म-दलिकों (स्कन्धों) के द्वारा आत्मा की शक्तियों को आच्छादित करना प्रदेशबन्ध कहलाता है। यह कर्म पुद्गलों की मात्रा (quantity) का निर्धारण करता है। जीवप्रदेशों का कर्म पुद्गलों के साथ जो सम्बन्ध होता है उसे प्रदेशबन्ध कहा जाता है।
'कर्मग्रन्थ' प्रथम, पृष्ठ ५ ६ उत्तराध्ययनचूर्णि
- पं. सुखलालजी। - (आगम पंचांगी क्रम ४१/५, पत्र ३१६४) ।
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