SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ में बन्ध ही नहीं है। इस प्रकार योग कर्मबन्ध का महत्त्वपूर्ण कारण नहीं है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय में विरोधी अन्तर नहीं है। कषाय के अभाव में प्रमाद तथा प्रमाद के अभाव में कषाय नहीं हो सकता। इसी प्रकार अविरति के मूल में भी कषाय ही रहे हुए हैं। अतः कषाय में प्रमाद एवं अविरति दोनों का अन्तर्भाव हो जाता है। फिर बन्धन के शेष कारण मिथ्यात्व एवं कषाय में प्रमुख कौन है, इस पर वर्तमान में विद्वानों ने व्यापक रूप से चिन्तन किया है। आचार्य विद्यासागरजी आदि का एक वर्ग इन दोनों में कषाय को प्रमुख मानता है तो दूसरी ओर कानजी स्वामी की विचारधारा से प्रभावित दूसरा वर्ग मिथ्यात्व को बन्धन का प्रमुख कारण मानता है, किन्तु डॉ. सागरमल जैन का कहना है कि कषाय और मिथ्यात्व दोनों ही अन्योन्याश्रित हैं। मिथ्यात्व तभी समाप्त होता है जब कषायें समाप्त होती हैं और अनन्तानुबन्धी कषायों के समाप्त होने पर मिथ्यात्व समाप्त होता है। ये ताप और प्रकाश के समान सहजीवी हैं। इनमें एक के अभाव में दूसरे की सत्ता नहीं रहती है। - कर्मबन्ध के प्रकार . कर्मबन्ध के कारणों को यदि संक्षेप में कहना चाहें तो कर्मबन्ध के मूल कारण राग-द्वेष एवं मोह या आसक्ति हैं। उत्तराध्ययनसूत्र के बत्तीसवें अध्ययन में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि राग-द्वेष कर्म के बीज हैं। .. कर्मपरमाणु जब आत्मा से संयोजित होते हैं तो उनका आत्मा के साथ चार प्रकार का बन्ध होता है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार बन्ध के वे चार प्रारूप निम्न हैं। (0) प्रकृतिबन्ध - प्रकृति का अर्थ स्वभाव होता है। कर्मों के स्वभाव का निर्धारण प्रकृतिबन्ध के आधार पर होता है। दूसरे शब्दों में प्रकृतिबन्ध से आत्मा से सम्पृक्त कर्मपुद्गलों के स्वरूप का निर्धारण होता है। प्रकृतिबन्ध को स्पष्ट करते हुए पण्डित सुखलालजी लिखते हैं कि- जैसे वातनाशक पदार्थों से बने लड्डुओं का स्वभाव वायु को नाश करने, पित्तनाशक पदार्थों से बने हुए लड्डुओं का स्वभाव पित्त को शान्त करने और कफनाशक पदार्थों से बने लड्डुओं का स्वभाव कफ को नष्ट करने का होता है; वैसे ही आत्मा के द्वारा गृहीत पुदगलों में से कुछ में आत्मा के ७ 'रागो य दोसो य कम्मबीय' - उत्तराध्ययनसूत्र ३२/७। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy