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________________ २१५ रागद्वेष से मुक्त जीव के होनेवाले कर्म क्षय होजाते है । वे ईर्यापथिक कर्म कहलाते हैं। ईर्यापथिक कर्म पहले समय में बन्धते हैं, और दूसरे समय में उदय में आकर तीसरे समय में निर्जरित हो जाते हैं। ६.२ कर्मबन्ध के कारण आचार्य देवेन्द्रसूरि कर्म की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि जीव की क्रिया का जो हेतु है, वह कर्म है। क्रिया के हेतु पांच हैं (१) मिथ्यात्व; (२) अविरति; (३) प्रमाद; (४) कषाय; और (५) योग। मिथ्यात्व- अतत्त्व में तत्त्व एवं तत्त्व में अतत्त्व की दृष्टि मिथ्यात्व है। विपरीत तत्त्वश्रद्धा मिथ्यात्व कहलाती है। दूसरे शब्दों में अयथार्थ में यथार्थ तथा यथार्थ में अयथार्थ की प्रतीति मिथ्यात्व है। इसके आभिग्रहिक, अनाभिग्रहिक आदि पांच भेद हैं। अविरति- पापकर्म से विरत न होना अविरति है। चारित्रमोहनीयकर्म के कारण जीव आंशिक या सर्वरूप में हिंसा आदि पापकारी प्रवृत्तियों से विरत नहीं हो पाता है- यही अविरति है। प्रमाद- आत्मसजगता एवं विवेक का अभाव प्रमाद है। कषाय- जो भाव आत्मपरिणाम को कलुषित करते हैं वे कषाय कहलाते हैं। दूसरे शब्दों में आत्मा की रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति कषाय है। इसके चार प्रकार हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ। योग- योग का अर्थ प्रवृत्ति है अर्थात् मन, वचन एवं काया की शुभ या अशुभ प्रवृत्ति का नाम योग है। यहां ज्ञातव्य है कि योग कर्मबन्धं का गौणकारण है; मुख्य नहीं। क्योंकि, बन्ध के पूर्व चार प्रकारों के अभाव में मात्र योग के निमित्त से होने वाला कर्मवर्गणाओं का बन्ध ईर्यापथिकबन्ध कहलाता है। और ईपिथिकबन्ध एक समय का होता है। उसमें स्थिति का अभाव है। अतः यह बन्ध वास्तविक अर्थ ६ 'कीरइ जीएण हेऊहिं, जेणं तो भन्नए कम्मं ।' - कर्मग्रन्थ १/91 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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