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________________ २१४ इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि कर्मसिद्धान्त एक व्यापक सिद्धान्त है; जिसमें अन्य सभी सिद्धान्तों का समवेत रूप से समावेश है। आगे हम उत्तराध्ययनसूत्र के सन्दर्भ में जैन कर्मसिद्धान्त की चर्चा करेंगे। ६.१ कर्म का स्वरूप सामान्यतः ‘यत् क्रियते तत् कर्म' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो कुछ किया जाता है वह कर्म है, इस प्रकार कर्म का साधारण अर्थ क्रिया, कार्य या व्यापार है, किन्तु जैनदर्शन में 'कर्म' शब्द विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसके अन्तर्गत कर्म को क्रिया का हेतु एवं परिणाम दोनों माना गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में कर्म की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि जिनसे बद्ध होकर जीव संसार में परिभ्रमण करता है, वे कर्म हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि संसार परिभ्रमण की निमित्तभूत इच्छा से की गई क्रिया ही कर्म कहलाती है; साधारण क्रिया नहीं। इस परिभाषा को स्पष्ट करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र की टीकाओं में लिखा है कि मिथ्यात्व, कषाय आदि कारणों से जीव के द्वारा जो कुछ किया जाता है, वह कर्म कहलाता है। . उत्तराध्ययनसूत्र में एक दृष्टान्त के द्वारा कर्म को स्पष्ट करते हुए कहा गया है- जिस प्रकार एक साथ मिट्टी के दो ढेलों को दीवार पर फेंका जाय; उन ढेलों में एक शुष्क और एक आर्द्र हो तो वे दोनों दीवार तक पहुंचते अवश्य हैं, किन्तु उनमें जो आर्द्र ढेला होता है वह दीवार से चिपक जाता है और जो शुष्क ढेला होता है वह दीवार से चिपकता नहीं है। इसी प्रकार मिथ्यात्व, कषाय आदि से युक्त (आर्द्र) क्रिया आत्मा के साथ सम्पृक्त हो जाती है तथा इन हेतुओं से रहित होकर विरक्त भाव से की गई क्रिया बन्धन का कारण नहीं होती है।' ३ जेहिं (कम्माइ) बद्धो अयं जीवो, संसारे परिवत्तए' ४ 'क्रियन्ते मिथ्यात्वादि हेतुभिजावेनेति कर्माणि ।' (क) पत्र - ३१० (ख) पत्र - ३१५८ (ग) पत्र - ३१६४ (घ) पत्र - ३१६६ ५ 'उल्लो सुक्को प दो चूड़ा, गोलया मट्टियामया । दो वि आवडिया कुड्डे, जो उल्लो सा तत्व लग्गई ।।' "एवं लग्गति दुम्मेहा, जे नरा काम लालसा । विरत्ता उन लग्गति, जह सुक्को उ गोलओ।' - उत्तराध्ययनसूत्र ३३/१।। - उत्तराध्ययनसूत्र टीका (आगम पंचांगी क्रम ४१/५) - (गणिभावविजयजी); - (शान्त्याचाय); - (लक्ष्मीवल्लभगणि); - (कमलसंयमोपाध्याय)। - उत्तराध्ययनसूत्र २५/४२ एवं ४३ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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