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दर्शनावरणीयकर्म के बन्धन के कारण
भगवतीसूत्र, तत्त्वार्थसूत्र तथा कर्मग्रन्थ में ज्ञानावरणीयकर्म के समान दर्शनावरणीयकर्म के बन्धन के निम्न कारण प्रतिपादित किये गये हैं।
(१) आत्मानुभूति या इन्द्रियानुभूति से सम्पन्न व्यक्ति के प्रति द्वेषबुद्धि रखना; (२) अनुभूत्यात्मक शक्ति को छुपाना; (३) आत्मानुभूति या आत्म साक्षात्कार करने वाले के प्रति उपेक्षा या अनादर का भाव रखना; (४) आत्मानुभूति या इन्द्रियानुभूति में बाधक बनना; और (५) आत्मानुभूति सम्पन्न व्यक्ति की अवमानना अथवा उसके साथ दुराग्रहपूर्वक विवाद करना। दर्शनावरणीयकर्म की प्रकृति
उत्तराध्ययनसूत्र में दर्शनावरणीयकर्म की निम्न नौ प्रकृतियों का उल्लेख प्राप्त होता है।"
(१) निद्रा- उत्तराध्ययनसूत्र की टीका के अनुसार सोया हुआ व्यक्ति सुखपूर्वक जग जाए ऐसी नींद निद्रा कही जाती है और जिस कर्म के निमित्त से ऐसी नींद आती है, उपचार से वह कर्म भी निद्रा कहलाता है। दूसरे शब्दों में जिस कर्म के प्रभाव से जीव को सामान्य निद्रा आए, वह निद्रा दर्शनावरणीयकर्म . कहलाता है।
(२) प्रचला- जिस कर्म के प्रभाव से खड़े-खड़े या बैठे-बैठे नींद आती हो वह प्रचला दर्शनावरणीयकर्म है।
(३) निद्रा-निद्रा- जिस कर्म के प्रभाव से जीव को प्रगाढ़ निद्रा आए वह निद्रा-निद्रा दर्शनावरणीयकर्म है। ऐसी निद्रा वाला व्यक्ति बड़ी कठिनाई से
जगता है।
- (अंगसुत्तापि, लाडनूं, खण्ड २, पृष्ठ ३८४)
१६ (क) भगवती १/६/४२१
(ख) तत्त्वार्थसूत्र ६/११;
(ग) कर्मग्रन्थ १/५४ । १७ 'निदा तहेव पयला, निद्दानिद्दा य पयलापयला य ।
तत्तो य वीणगिद्धि उ, पंचमा होइ नायव्वा ।। 'चक्खुमचक्खुओहिस्स, देसणे केवले य आवरणे। एवं तु नवविगप्पं, नायब्वं दंसणावरणं ।' * उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३१६५ १६ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३१६५ २० उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३१६५
- उत्तराध्ययनसूत्र ३३/५/६ । - (लामीवल्लभगणि)। - (लक्ष्मीवल्लभगणि)।
- (लक्ष्मीवल्लभगणि) ।
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