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________________ - चतुर्थ अध्याय में उत्तराध्ययन में प्रतिपादित तत्त्वमीमांसीय अवधारणाओं की विस्तृत रूप से चर्चा की गई है। इस अध्याय के अन्तर्गत पंचास्तिकाय की अवधारणा से षद्रव्यों की अवधारणा का विकास कैसे हुआ, इसका ऐतिहासिक विकासकम दिखाते हुए षद्रव्यों का विस्तार से विवेचन किया गया है। साथ ही प्रस्तुत अध्याय में द्रव्य, गुण एवं पर्याय के पारस्परिक सम्बन्ध की भी चर्चा की गई है। इस अध्याय के अन्त में उत्तराध्ययन में प्रतिपादित जीव आदि नवतत्त्वों की अवधारणा को भी स्पष्ट किया गया है। प्रस्तुत शोधप्रबंध का पंचम अध्याय आत्ममीमांसा से सम्बन्धित है। इस अध्याय के अन्तर्गत आत्मा के आस्तित्व के प्रमाणों की चर्चा एवं साथ-साथ आत्मा के स्वरूप पर भी प्रकाश डाला गया है। साथ ही इसमें संसारी एवं सिद्ध जीवों के विभिन्न प्रकारों की चर्चा करते हुए त्रस एवं स्थावर जीवों के वर्गीकरण की विभिन्न अवधारणाओं के ऐतिहासिक विकास कम की भी चर्चा की गई है और अन्त में षट्जीवनिकाय एवं उनके भेद प्रभेदों का उत्तराध्ययन के आधार पर विस्तार से विवेचन किया गया है। ज्ञातव्य है कि उत्तराध्ययन का जीवाजीवविभक्ति नामक अन्तिम अध्ययन जीवों के भेद प्रभेद की व्यापक रूप से चर्चा करता है। प्रस्तुत विवेचन में उसी को आधार बनाया गया है। जैनदर्शन का कर्मसिद्धान्त अत्यन्त विलक्षण है। प्रस्तुत शोधप्रबंध के षष्ठम अध्याय में कर्ममीमांसा का विवेचन है। उत्तराध्ययन के तैंतीसवें अध्ययन में हमें कर्मसिद्धान्त का विवेचन उपलब्ध होता है। उसी को आधार बनाकर प्रस्तुत कृति में कर्म के स्वरूप, कर्मबन्ध के कारण और कर्मों की विभिन्न प्रकृति की विस्तृत चर्चा की गई है। इस अध्याय के अन्त में कर्मसिद्धान्त नियतिवाद है या पुरूषार्थवाद ? इस दार्शनिक समस्या पर भी प्रकाश डालने का प्रयत्न किया गया है। प्रस्तत शोधप्रबंध का सप्तम अध्याय उत्तराध्ययन में प्रतिपादित जीवनदर्शन का विवेचन प्रस्तुत करता है। इस अध्याय के प्रारम्भ में उत्तराध्ययन के आधार पर संसार की दुःखमयता का चित्रण करते हुए दुःख के कारण और दुःखविमुक्ति के उपायों की चर्चा की गई है। साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि उत्तराध्ययन के अनुसार सांसारिक सुख सुखाभास मात्र है। अन्त में क्या उत्तराध्ययन जीवन का निषेध सिखाता है इस समस्या को उठाते हुए उत्तराध्ययन के जीवनदर्शन को प्रस्तुत किया गया है। निष्कर्ष के रूप में इसमें यह उल्लेख किया गया है कि उत्तराध्ययन का जीवनदर्शन निराशावादी न होकर आशावादी है, वह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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