________________
वश जिनवाणी का विपरीत प्रतिपादन न हो जाये। आगम ग्रंथों पर समीक्षात्मक रूप से कुछ लिखना गुरूगंभीर कार्य है। मन में बार-बार यह प्रश्न उभर रहा था कि क्या मैं विषय के साथ उचित न्याय कर पाऊंगी ? कुछ समय तक तो मन विकल्पों की वीथियों में ही भटकता रहा । इतने में आत्मचिन्तन और मन्थन से अन्तस्वर फूट पड़ा 'गुरु आज्ञा के सामने तुझे विकल्प करने का अधिकार ही क्या है ? गुरू आज्ञा सफलता का सबल संकेत है। सिद्धि का सोपान है।' बस फिर क्या था, सारे विकल्प विगलित हो गये । मन निस्तरंग जल की भांति शान्त होकर अपने लक्ष्य पर स्थिर हो गया। निश्चित समय पर उत्तराध्ययनसूत्र मूल एवं टीकाओं का अध्ययन प्रारम्भ हो गया। पू. गुरूवर्या श्री एवं अधिकारी विद्वानों से समय-समय पर चर्चा होती रही । इसी सन्दर्भ में सन् १६६७ के बम्बई चातुर्मास के अन्तर्गत आगममर्मज्ञ, श्रद्धेय डॉ. सागरमलजी जैन का आगमन हुआ और उनके निर्देशन में शोध करने का निश्चय किया गया ।
प्रस्तुत शोधप्रबंध सत्रह अध्यायों में विभक्त है। इसके प्रथम अध्याय में जैनागम साहित्य की रचना, उसका रचनाकाल, उसका वर्गीकरण तथा जैनागमों की विभिन्न वाचनाएं एवं उनके काल की चर्चा के साथ ही इसमें जैनागमों की संक्षिप्त विषयवस्तु का भी चित्रण किया गया है। अन्त में जैनागमों में उत्तराध्ययन का क्या स्थान है; इसकी चर्चा की गई है।
दूसरे अध्याय में उत्तराध्ययन का परिचय प्रस्तुत किया गया है। इसमें उत्तराध्ययन के नामकरण के सन्दर्भ में जो विभिन्न अवधारणायें प्रचलित हैं, उनका उल्लेख करते हुए यह बताया गया है कि उत्तराध्ययन को मूलसूत्र कहने का क्या औचित्य है। साथ ही इसमें उत्तराध्ययन के रचयिता एवं रचनाकाल के सन्दर्भ में भी चर्चा की गई है। उसके पश्चात् इसमें उत्तराध्ययन की भाषा, शैली तथा उसके विभिन्न अध्ययनों की विषयवस्तु की चर्चा की गई है । अन्त में उत्तराध्ययन पर रचित व्याख्यासाहित्य और टीकासाहित्य का भी संक्षिप्त परिचय दिया गया है।
दार्शनिक अध्ययन में ज्ञानमीमांसा का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। इसी दृष्टिकोण को लक्ष्य में रखकर प्रस्तुत शोधप्रबंध के तीसरे अध्याय में उत्तराध्ययन में प्रतिपादित ज्ञानमीमांसा का उल्लेख किया गया है। इसमें विशेष रूप से पंचज्ञानवाद और प्रमाणवाद की चर्चा की गई है। इस चर्चा के प्रसंग में हमने पंचज्ञानवाद और प्रमाणवाद के ऐतिहासिक विकासक्रम की भी चर्चा की है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org