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________________ अतीत का अनुसंधान है। एक अन्य दृष्टि से विचार करें तो वह वर्तमान के संदर्भ में अतीत के तथ्यों की उपादेयता की खोज है। दूसरे शब्दों में वह अतीत के तथ्यों का वर्तमान के सन्दर्भ में मूल्यांकन है। इसका एक अर्थ यह भी हो सकता है कि अतीत के ज्ञान के सहारे वर्तमान की समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न करना। इस प्रकार शोध की प्रक्रिया अतीत और वर्तमान दोनों से ही जुड़ी हुई है। अतीत विस्मति के गहन गहवर में विश्रान्त न रहे और वर्तमान अतीत की उन अनुभूतियों एवं शिक्षाओं का लाभ उठाने से वंचित न रहे, इस उत्तरदायित्व का निर्वाह करना प्रत्येक शोधकर्ता का कर्तव्य है। इस कर्त्तव्य बोध ने ही मुझे शोध कार्य के लिये प्रेरित किया। वस्तुतः मुझ में इस कर्त्तव्य बोध को जगाने का सम्पूर्ण श्रेय मेरे अस्तित्व का आधार, कृतित्व का प्राण गुरूवर्या हेमप्रभा श्री जी म. सा. को है, जिन्होंने मेरे जीवन में न केवल जिज्ञासा के बीज बोए वरन् हर समय उसका सिंचन भी किया है, और कर रही है। ___ पू. गुरुवर्या के असीम उपकारों की अभिव्यक्ति किस रूप में करूं समझ में नहीं आता । आपका सदज्ञान का संबल, प्रेरणा एवं मार्गदर्शन प्रारम्भं से अन्त तक साथ रहा यहां तक कि शोधकार्य संपूर्ण होने पर आपश्री ने अतिव्यस्तता के बावजूद अल्पावधि में इसमें कई महत्त्वपूर्ण संशोधन करके इस कृति की गरिमा को बढ़ाया है । गुरूवर्या श्री सर्वतोभावेन मेरी आस्था एवं श्रद्धा की केन्द्र हैं। यह निहायत सत्य है : आपकी कृपा, प्रेरणा, मार्गदर्शन के अभाव में इस कृति की कल्पना भी आकाश कुसुमवत् है । जहां तक प्रस्तुत शोध विषय के चयन का प्रश्न है वह एक कठिन कार्य था, क्योंकि व्यक्ति की महत्त्वाकांक्षाएं तो असीम होती है, किन्तु उसकी कार्य क्षमता एवं प्रतिभा की अपनी सीमा होती है। अतः सर्वप्रथम यह निर्णीत किया गया कि अपने ही एम. ए. उत्तरार्ध में लिखित लघु शोध प्रबन्ध जैनदर्शन में अहिंसा का स्वरूप एवं वर्तमान में उसकी उपादेयता' को शोध प्रबंध का विषय बना लिया जाये और उस पर ही विस्तारपूर्वक एवं गहराई से कुछ लिखा जाये पर अन्तर्मन इस बात को समग्रतः स्वीकार नही कर पा रहा था। एक बार जिसके लिए कलम चल पड़ी पुनः उसी पर कलम चलाना रूचिकर नहीं लग रहा था। मैं विषय चयन के इन्हीं विचारों में विचरण कर रही थी। इतने में गुरूवर्या श्री ने मुझे बुलाकर आज्ञा प्रदान की- 'मेरी इच्छा है कि तुम उत्तराध्ययनसूत्र पर शोध कार्य करो। इतना सुनते ही मैं कुछ पल के लिए असमंजस में पड़ गई। मन आशंकित हो उठा कि कहीं अल्पज्ञता । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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