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(२) व्यन्तर- इन्हें वाणव्यन्तर तथा वनचारी देव भी कहा जाता है । ये तीनों लोकों में स्वेच्छापूर्वक भ्रमण करते हुए र्वत, वृक्ष, वन आदि विविध स्थलों में निवास करते हैं। इनकी आठ जातियां हैं - (१) पिशाच (२) भूत (३) यक्ष (४) राक्षस (५) किन्नर (६) किंपुरूष (७) महोरग एवं (८) गन्धर्व | 24
(३) ज्योतिषी - जो ज्योतिष चक्र में निवास करते हैं उनको ज्योतिषि देव कहा है। ये स्वयं ज्योतिरूप होते हैं। सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, ग्रह एवं तारागण के भेद से ये मुख्यतः पांच प्रकार के हैं। इन पांचों में भी चर एवं अचर ऐसे दो भेद किए गए हैं। मनुष्यक्षेत्र में ये चर अर्थात् गतिमान होते हैं। इनकी गति से समय का बोध होता है । मनुष्यक्षेत्र के / बाहर ज्योतिषीदेव अचर अर्थात् स्थिर हैं, अतः व्यवहारिककाल मनुष्यक्षेत्र तक ही सीमित माना गया है । भवनपति, व्यन्तर एवं ज्योतिषी इन तीनों देवों की उत्कृष्ट आयु क्रमशः कुछ अधिक एक सागरोपम, एक पल्योपम एवं एक लाख वर्ष अधिक, पल्योपम है तथा जघन्य आयु क्रमशः दस हजार वर्ष, दस हजार वर्ष एवं पल्योपम का आठवां भाग है। देव मरकर पुनः देव नहीं बनते, अतः देवताओं की आयुस्थिति ही उनकी भवस्थिति है।
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(४) वैमानिक - शुभकर्मों के परिणाम स्वरूप ये देव विशेष रूप से माननीय होते हैं। विमानों में निवास करने के कारण ये वैमानिक देव कहलाते हैं। व्यवस्था आदि के आधार पर वैमानिक देवों के दो प्रकार बताये गये हैं- (१) कल्पोत्पन्न (२) कल्पातीत।97
(१) कल्पोत्पन्न- कल्प अर्थात् आचार । व्यवस्था में रहने वाले इन्द्र आदि देव कल्पोंत्पन्न वैमानिक देव हैं। दूसरे शब्दों में जहां स्वामी - सेवक की मर्यादा होती है, वे कल्पोत्पन्न देव हैं। इनके बारह भेद किये गये हैं- (१) सौधर्म (२) ईशानक (३) सनत्कुमार (४) माहेन्द्र (५) ब्रह्म (६) लान्तक (७) महाशुक्र (८) सहस्रार (६) आनत (१०) प्राणत (११) आरण और (१२) अच्युत । ये सभी ऊर्ध्वलोक में क्रमश: ऊपर ऊपर निवास करते हैं। 8
६४ उत्तराध्ययनसूत्र ३६ / २०७ ।
६५ उत्तराध्ययनसूत्र ३६ / २०८ ।
६६ उत्तराध्ययनसूत्र ३६ / २१६ से २२१ एवं २४५ ।
६७ उत्तराध्ययनसून ३६ / २०६ ।
६८ उत्तराध्ययनसूत्र ३६ / २१० एवं २११ ।
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