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(ग) अन्तर्वीपज- समुद्र के मध्य द्वीपों में रहने वाले मनुष्य अन्तर्वीपज कहलाते
हैं
__ मनुष्य की आयु स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है तथा कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त, तथा उत्कृष्ट पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम की है।
(४) देव : देवगति की प्राप्ति का कारण बताते हुये उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि सामान्यतः अधर्म (अशुभकर्मों) के त्याग एवं धर्म (शुभकर्मो) के आचरण से देवगति प्राप्त होती है 188 देवों में दो श्रेणियां पाई जाती हैं- उच्च श्रेणी एवं निम्न श्रेणी। देवता उपपाद-जन्म वाले एवं वैक्रिय शरीरी होते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में देवताओं के मुख्य चार भेदों का उल्लेख है- (१) भवनपति (२) व्यन्तर (३) ज्योतिषी और (४) वैमानिक 9 'तत्त्वार्थसूत्र' में भी देवताओं के मुख्य ये ही चार भेद बताये हैं। इनके अवान्तर पच्चीस भेद हैं-91 (१) भवनपति- भवनों में रहने एवं उनके अधिपति होने के कारण ये देव भवनवासी या भवनपति कहलाते हैं। इनका निवासस्थान रत्नप्रभा पृथ्वी है। रत्नप्रभा का पिण्ड, एक लाख अस्सी हजार योजन मोटाई वाला है। उसमें से ऊपर के एक सहस्त्र योजन एवं नीचे के एक सहस्त्र योजन को छोड़कर मध्य के एक लाख अठहत्तर हजार योजन में भवनपति देवों के सात करोड़ बहत्तर लाख भवन हैं, जिनमें प्रायः भवनपति देवों की उत्पत्ति मानी गई है। गणिवर भावविजयजी के अनुसार आहार, विहार, वेशभूषा आदि राजकुमारों की तरह होने के कारण इन्हें कुमार शब्द से अभिहित किया जाता है।2 भवनपति देवों के दस प्रकार हैं (१) असुरकुमार (२) नागकुमार (३) सुपर्णकुमार (४) विद्युत्कुमार (५) अग्निकुमार (६) द्वीपकुमार (७) उदधिकुमार (८) दिक्कुमार (६) वायुकुमार और (१०) स्तनितकुमार।
- उत्तराध्यययन ७/२६ का अंश ।
८८ 'चिच्चा अधम्मं धम्मिठे, देवेसु उववज्जई ।।' ८६ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/२०४ । ६० तत्त्वार्थसूत्र - चतुर्थ अध्ययन । E१ 'दसहा उ भवणवासी, अट्टहा वणचारिणो।
पंचर्विहा जोइसिया, दुविहा वेमाणिया तहा ।।' ६२ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३४३१ ६३ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/२०६ ।
- उत्तराध्ययनसूत्र ३६/२०५ ।
- गणिवर भावविजयजी।
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