SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०४ नरक के जीव भी सात प्रकार के माने जाते हैं । नारकी के जीव यावज्जीवन नरक में ही रहते हैं। ये जीवविशेष की अपेक्षा से सादि-सान्त एवं प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं वर्ण, गंध, रस, स्पर्श एवं संस्थान (शरीर-सरंचना) की अपेक्षा से नरक के जीवों के असंख्य भेद हैं। नारकीय जीवों की आयुस्थिति : नारक जीव मृत्यु को प्राप्त कर पुनः नरक में उत्पन्न नहीं होते हैं। इनकी भवस्थिति और कायस्थिति एक ही है अर्थात् इनका जो आयुष्य है वही इनकी कायस्थिति भी है। नारकीय जीवों के आयुष्य का निर्धारण भी क्षेत्र की अपेक्षा से है। प्रथम नरक के जीवों की जघन्य आयु दस हजार वर्ष एवं उत्कृष्ट आयु एक सागरोपम है। द्वितीय नरक के जीवों की जघन्य आयु एक सागरोपम एवं उत्कृष्ट तीन सागरोपम की है। तृतीय नरक के जीवों की जघन्य आयु तीन सागरोपम एवं उत्कृष्ट सात सागरोपम है। चौथी नरक के जीवों की जघन्य आयु सात सागरोंपम एवं उत्कृष्ट दस सागरोपम है। पांचवी नरक के जीवों का जघन्य आयुष्य दस सागरोपम एवं उत्कृष्ट सत्रह सागरोपम है। छठी नरक के जीवों का जघन्य आयु सत्रह सागरोपम एवं उत्कृष्ट बाईस सागरोपम है। सातवीं नरक के जीवों की जघन्य आयु बाईस सागरोपम एवं उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम है। (२) तिर्यच : जन्म ग्रहण करने की प्रक्रिया के आधार पर उत्तराध्ययनसूत्र में तिर्यंच के दो भेद बतलाये गये हैं- (१) सम्मूर्छिम तिर्यच (२) गर्भज तिथंच। सम्मूर्छिम तिर्यंच - नर-मादा के संयोग के बिना अशुचिस्थानीय पुदगलों में उत्पन्न होने वाले जीव, सम्मूर्छिम तिर्यच जीव कहलाते हैं । जो मनः पर्याप्ति के अभाव में सदैव मूर्च्छित अवस्था में रहते हैं। दो इन्द्रिय वाले जीवों से लेकर यावत् असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव सम्मूर्छिम जीव कहलाते हैं। आज वैज्ञानिक प्रयोगों ने भी इस बात को सिद्ध कर दिया है। उन्होंने भेड़ क्लोन – भेड के शरीर के एक भाग से एक नई भेड़ को उत्पन्न किया है। रज-वीर्य के संयोग का अभाव होने पर भी पुद्गल से जीव की उत्पत्ति का यह एक प्रमाण है। गर्भज - जो गर्भ से उत्पन्न होने वाले जीव गर्भज कहलाते हैं। संमूर्छिम एवं गर्भज दोनों ८० उत्तराध्ययनसूत्र ३६/१५६ से १५६ एवं १६६ । ८१ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/१६० से १६८ । १२ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/१७० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy