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________________ २०३ उदार त्रस जीव सूक्ष्म नहीं होते हैं, अतः इनमें सूक्ष्म रूप भेद नहीं होता है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय जीव स्थूल होते हैं । ये लोक के एक देश में रहते हैं। ये जाति की अपेक्षा से अनादिकाल से हैं एवं इनकी जघन्य आयुष्य (अल्प से अल्प) अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) द्वीन्द्रिय जीवों की १२ वर्ष, त्रीन्द्रिय जीवों की ४६ दिन और चतुरिन्द्रय की ६ मास है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय जीवों की कायस्थिति जघन्य अन्तमुहूर्त एवं उत्कृष्ट संख्यात काल की है। इनका अन्तरकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट अनन्तकाल है। ये प्रवाह/ जीव समूह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त तथा जीव-विशेष/एक जीव की अपेक्षा से सादि-सान्त हैं । पंचेन्द्रिय जीव स्पर्श, रसना, घ्राण, चक्षु एवं श्रोत्र-इन पांचों इन्द्रियों से सम्पन्न जीव पंचेन्द्रिय जीव कहलाते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में पंचेन्द्रिय जीव के मुख्यतः चार प्रकारों का उल्लेख किया गया है । (१) नारक (२) तिर्यच (३) मनुष्य एवं (४) देव।" प्रज्ञापनासूत्र में भी पंचेन्द्रिय जीव के ये ही चार प्रकार बतलाये गये हैं।' ये भेद गति के आधार पर किये गये हैं। गति की अपेक्षा से तो एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि जीव भी तिथंच हैं, क्योंकि सभी तिर्यंच पंचेन्द्रिय नहीं होते । किन्तु यहां पंचेन्द्रिय तिर्यच ही लेना अभीष्ट है । तिर्यचों में पंचेन्द्रिय भी होते हैं। अब हम उपर्युक्त चारों प्रकार के पंचेन्द्रिय जीवों का क्रमशः विवेचन करेंगे। (१) नारकी जीव : नरक में रहने वाले जीव नारकी कहलाते हैं। ये अधोलोक में निवास करते हैं और पापकर्मों के कारणं भयंकर कष्टों को सहन करते हैं। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार नरक के जीव नपुंसक एवं उपपाद जन्म वाले होते हैं। नरक का वर्णन करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि अधोलोक में नीचे-नीचे क्रमशः सात पृथ्वियां हैं- १. रत्नप्रभा. २. शर्कराप्रभा ३. बालूकाप्रभा ४. पंकप्रभा ५ धूमप्रभा ६. तमः और ७. तमस्तमा। इन सात नरक क्षेत्रों में उत्पन्न होने के कारण ७२ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/१३०, १३६ एवं १४६ | ७३ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/१३१, १४० एवं १५० । ७४ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/१३२, १४१ एवं १५१ । ७५ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/१३३, १४२ एवं १५२ । ७६ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/१३४, १४३ एवं १५३ । ७७ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/१५५ । ७८ प्रज्ञापना सूत्र १/५२ ७६ तत्त्वार्थसूत्र २/३४ एवं ५० । - (उवंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड २, पृष्ठ २४) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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