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________________ २०२ द्वीन्द्रिय जीव उत्तराध्ययनसूत्र के अन्तर्गत द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय एवं पंचेन्द्रिय जीवों को उदार त्रस कहा गया है। इन्हें उराल या उदार कहने का तात्पर्य यह है कि इनमें एकेन्द्रिय स्थावर जीवों की अपेक्षा विशिष्ट शक्तियां होती हैं। जिन जीवों के दो इन्द्रियां अर्थात् स्पर्शेन्द्रिय एवं रसनेन्द्रिय होती हैं वे द्वीन्द्रिय जीव कहलाते हैं। द्वीन्द्रिय जीवों के मूलतः दो भेद हैं- पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक। पुनः जाति की अपेक्षा से द्वीन्द्रिय जीव के अनेक भेद किये गये हैं। जैसे कृमि, सौमंगल, केंचुआ, मातृवाहक, वासीमुख, सीप, शंख, शंखनक (छोटे-छोटे शंख), पल्लोय, अणुल्लक, कौड़ी, जौंक, जालक, चन्दनक/अक्षनिया आदि। त्रीन्द्रिय जीव जो जीव स्पर्शेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय एवं घ्राणेन्द्रिय-इन तीन इन्द्रियों से युक्त होते हैं वे त्रीन्द्रियजीव कहलाते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में त्रीन्द्रिय जीवों के निम्न प्रकारों का उल्लेख प्राप्त होता है- कुंथु, चींटी, खटमल, मकड़ी, दीमक, तृणाहारक, काष्ठाहारक (घुन), मालुक, पत्राहारक, कर्पासास्थि, तिन्दुक, त्रपुषमिंजक, शतावरी, कानखजुरा, इन्द्रकायिक, इन्द्रगोपक इत्यादि। चतुरिन्द्रिय जीव स्पर्श, रसना, घ्राण और चक्षु - इन चार इन्द्रियों वाले जीव चतुरिन्द्रिय कहलाते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में इनके मुख्यतः पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक ऐसे दो भद तथा अवान्तर अनेक भेद किये गये हैं- अन्धिका, पोत्तिका, मक्षिका, मच्छर, भ्रमर, कीट, पतंग, पिस्सू, कुंकुण, कुक्कुड, शृंगिरीटी, नन्दावर्त, बिच्छू, डोल, झींगुर, विरली, अक्षिवेधक, अक्षिल, मागध, अक्षिरोडक, विचित्र, चित्र-पत्रक, ओहिंजलिया, जलकारी, नीचक तन्तवक आदि।" ६८ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/१२६ । ६६ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/१२७, १२८, १२६ एवं १३०॥ ७० उत्तराध्ययनसूत्र ३६/१३६, १३७, १३८ एवं १३६ । ७१ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/१४५, १४६, १४७ एवं १४८/ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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