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एकेन्द्रिय जीवों की कायस्थिति
एक ही जीव निकाय में निरन्तर जन्म ग्रहण करते रहने की काल मर्यादा को ‘कायस्थिति' कहते हैं। जैसे यदि पृथ्वीकाय का जीव मृत्यु को प्राप्त कर पुनः पृथ्वीकाय में ही उत्पन्न होता है तो वह उस जीव की कायस्थिति कहलाती है। एक काय (जाति) का जीव उसी काय में लगातार कितने समय तक रह सकता है उसका वर्णन करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है- 'पृथ्वी, जल, अग्नि एवं वायु के जीवों की कायस्थिति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्टतमं असंख्यात वर्षों की है; वनस्पतिकाय जीवों की कायस्थिति जघन्य, अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अनन्त काल की है।
एकेन्द्रिय जीवों का अन्तरकाल
अन्तरकाल का शाब्दिक अर्थ बीच का समय है। जीवों के सन्दर्भ में इसे उदाहरण से समझा जा सकता है, जैसे पृथ्वीकाय का जीव आयुसमाप्ति के पश्चात् अपकाय आदि अन्य काय में उत्पन्न होकर पुनः उसी काय अर्थात् पृथ्वीकाय में जन्म धारण करे; इस बीच की अवधि को अन्तरकाल कहा जाता है। संक्षेप में किसी कायविशेष का जीव मरकर अन्य काय में जन्म धारण करने के पश्चात् कालान्तर में पुनः उसी काय में जन्म ग्रहण करे; यह बीच का. अन्तराल अन्तरकाल कहलाता है।
पृथ्वीकाय आदि के जीव पुनः कितने काल बाद उसी काय में जन्म धारण कर सकते हैं, इसको स्पष्ट करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय एवं वायुकाय के जीवों का अन्तरकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट अनन्तकाल है। वनस्पतिकाय के जीवों का अन्तरकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट असंख्यात वर्ष है।
६६ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/८१,८६, ११४, १२३ एवं १०३ । ६७ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/८२,६०, ११५, १२४ एवं १०४ ।
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