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हैं- जैसे अंगार (धूमरहित अग्नि/अंगारे), मुर्मुर (राखयुक्त अग्नि), अग्नि (सामान्य अग्नि), अर्चि (अग्निशिखा/दीपशिखा), ज्वाला, उल्का, विद्युत/इत्यादि। गणिवर भावविजयजी ने उत्तराध्ययनसूत्र की टीका में अर्चि का अर्थ समूल अग्निशिखा एवं ज्वाला का अर्थ मूल रहित अग्निशिखा किया है। कुछ विद्वानों की मान्यता में यहां अर्चि से तात्पर्य चिंगारी और ज्वाला से तात्पर्य समूल अग्निशिखा है। (२) वायुकायिक जीव : वायु ही है शरीर जिनका ऐसे जीव वायुकायिक जीव कहलाते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में इनके मुख्यतः सूक्ष्म पर्याप्तक, सूक्ष्म अपर्याप्तक, बादर पर्याप्तक, एवं बादर अपर्याप्तक, ऐसे चार भेद किये गये हैं। बादर पर्याप्तक वायुकायिक जीव के पांच प्रकार भेद हैं जैसे- उत्कलिका (रूक-रूक कर बहने वाली), मण्डलिका (चक्राकार), घनवात (घनीभूत वायु), गुंजावात (शब्द करने वाली), शुद्धवात (मन्द-मन्द पवन), संवर्तक (जो तृणादि उड़ाकर बहती है,) आदि । एकेन्द्रिय जीवों के उपर्युक्त भेदों के अतिरिक्त वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से इन सभी के असंख्यात भेद होते हैं।
. एकेन्द्रिय जीवों की भवस्थिति ... जीव एक जन्म में जितने काल तक जीवित रहता है वह उसकी भवस्थिति या आयुस्थिति कहलाती है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार सभी एकेन्द्रिय(पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु एवं वनस्पति) – जीवों की न्यूनतम आयु अन्तर्मुहूर्त अर्थात् एक समय से लेकर ४८ मिनट से कुछ न्यून होती है। इन सभी की अधिकतम आयु भिन्न-भिन्न होती है जैसे पृथ्वीकायिक की २२ हजार वर्ष, अप्रकायिक की ७ हजार वर्ष, वनस्पतिकायिक की १० हजार वर्ष, अग्निकायिक की तीन अहोरात्र (३ दिन रात)
और वायुकायिक की ३ हजार वर्ष है। इस आयु के पूर्ण होने पर ये जीव दूसरा शरीर धारण कर लेते हैं।
- गणिवर भावविजयजी।
. उत्तराध्ययनसूत्र ३६/१०८ से ११० । ६२ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३३८६ ६३ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/११७ से ११६ । ६४ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/८३, ६१, १०५, ११६ एवं १२५ । ६५ उतराध्ययनसूत्र ३६/८०, ८८, १०२, ११३ एव १२२ ।
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