________________
की इस शक्ति को ही पर्याप्ति कहा जाता है। पर्याप्ति को पूर्ण करने वाला जीव 'पर्याप्तक' एवं उन्हें पूर्ण नहीं करने वाला जीव 'अपर्याप्तक' कहलाता है।
१६७
प्राणी जिस योनि में जन्म लेता है, उस योनि योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करने वाला जीव ही पर्याप्त कहलाता है। वनस्पति में चार पर्याप्तियां होती है, अतः वनस्पतिकाय में जन्म लेने वाला जीव आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छवासपर्याप्ति- इन चार पर्याप्तियों को प्राप्त करने पर पर्याप्त बन जाता है। जबकि द्वीन्द्रिय आदि जीव उपर्युक्त चार के साथ भाषा पर्याप्ति मिलने पर तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव उपर्युक्त पांच के साथ छुट्टी मनः पर्याप्ति मिलने पर पर्याप्त कहे जाते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में बादर पर्याप्तक पृथ्वीकाय के पुनः मुख्यतः मृदु ( श्लक्षण) एवं कठोर-ये दो भेद किये हैं। पश्चात् मृदु पृथ्वी के सात एवं खर (कठोर ) पृथ्वी के छत्तीस भेदों का निरूपण किया गया है। 1 जीवाभिगमसूत्र में पृथ्वीकायिक जीवों के छः प्रकार बतलाये गये हैं यथा (१) श्लक्षण पृथ्वी; (२) शुद्ध पृथ्वी; (३) बालुका पृथ्वी; (४) मनः शिला पृथ्वी; (५) शर्करा पृथ्वी और (६) खर पृथ्वी। 2
-
(क) मृदु पृथ्वी के प्रकार : उत्तराध्ययनसूत्र में मृदु पृथ्वी के सात भेद रंग की अपेक्षा से किये गये हैं- (१) कृष्ण, (२) नील, (३) रक्त, (४) पीत, (५). श्वेत, (६) पाण्डु (भूरी मिट्टी) और (७) पनक (अतिसूक्ष्मरज) ।
(ख) खर (कठोर ) पृथ्वी : उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार खर- पृथ्वी के छत्तीस भेद निम्न हैं:- शुद्ध पृथ्वी, शर्करा, बालुका, उपल (पाषाण), शिला, लवण, उष (नौनी मिट्टी), लोहा, ताम्बा, त्रपुक (रांगा), शीशा, चांदी, सोना, वज्र (हीरा), हरिताल, हिंगुलः मैनसिका, सासक (सीसा), अंजन, प्रवाल, अभ्रपटल अभ्रक / भोडल, अभ्रंबालुक (अभ्रमिश्रित बालू), गोमेदक, रुचक, अंक, स्फटिक, लोहिताक्ष, मरकत, मसारगल्ल, भुजमोचक, इन्द्रनील, चन्दन, गेरू, हंसगर्भ, पुलक, सौगन्धिक, चन्द्रप्रभ वैडूर्य, जलकान्त एवं सूर्यकान्त आदि विविध रत्न । सूक्ष्म पृथ्वीकाय का एक ही भेद है। उत्तराध्ययनसूत्र में इसे अनानत्व कहा है अर्थात् यह नाना प्रकार के भेदों से रहित हैं।
५१ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/७१ से ७७ । ५२ जीवाभिगम ३/६०१
Jain Education International
- ( उवंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ३७५ ) ।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org