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सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव सम्पूर्ण लोक में एवं बादर । पृथ्वीकाय लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। (२) अप्कायिक जीव
अप्कायिक-जीव जिनकी काय अर्थात् शरीर जलरूप होता है, वे अप्काय के जीव होते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में अप्काय के जीवों के सर्वप्रथम सूक्ष्म एवं बादर ये दो भेद किये गये हैं। पुनः इन्हीं दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त के रूप में दो दो भेद किये गये हैं यथा- १. सूक्ष्म-पर्याप्तक २. सूक्ष्म-अपर्याप्तक ३. बादर पर्याप्तक एवं ४. बादर-अपर्याप्तक।
___बादर पर्याप्तक अप्काय् जीवों के पांच भेद किये गये हैं- (१) शुद्धोदक (वर्षा का जल), (२) ओस, (३) हरतणु (पत्तों आदि पर रहे हुए जल कण), (४) महिका (कुहासा) एवं (५) हिम (बर्फ)।54 उत्तराध्ययनसूत्र में वर्णित बादर अपकार्य के इन पांच भेदों, की अपेक्षा प्रज्ञापनासूत्र में बादर पर्याप्तक अपकाय के १७ भेदों का उल्लेख है । उनका समावेश पूर्वोक्त पांच भेदों में हो जाता है। वैसे आगे उत्तराध्ययनसूत्र के ३६वें अध्ययन की ६१वीं गाथा में वर्ण, गंध, रस आदि की अपेक्षा से अपकाय के अनेक भेद बताये गये हैं। उसमें कहा गया है कि वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से अप्काय के हजारों भेद हैं। (३) वनस्पतिकायिक जीव .. वनस्पति ही है शरीर जिनका, ऐसे जीव वनस्पतिकायिक जीव कहलाते हैं। वनस्पतिकाय के सूक्ष्म-पर्याप्तक, सूक्ष्म-अपर्याप्तक, बादर-पर्याप्तक एवं बादर अपर्याप्तक के रूप में चार भेद हैं। बादर पर्याप्तक के पुनः दो भेद हैं-साधारण शरीर एवं प्रत्येक शरीर।" उत्तराध्ययनसूत्र टीकाकार गणिवर भावविजयजी के अनुसार जब एक ही शरीर में अनेक जीवों का समान रूप से निवास होता है तो वे साधारण शरीर कहलाते हैं किन्तु जब एक शरीर में मुख्य रूप से एक ही जीव का निवास होता है, वे प्रत्येक शरीर कहलाते हैं। प्रत्येक शरीर के आश्रित भी अपने-अपने स्वतन्त्र शरीरों को लेकर अनेक जीव रह सकते हैं। वैसे तो साधारण
"५३ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/७८ । ५४ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/८४ एवं ८५॥ १५ प्रज्ञांना सूत्र १/२३ ५६ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/६५। ५७.उत्तराध्ययनसूत्र ३६/६२ एवं ६३ । ५. उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३३७८
- (उवंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड २, पृष्ठ ११)।
- गणिवर भावविजयजी।
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