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(च) जीवाभिगमसूत्र जीवाभिगमसूत्र में त्रस एवं स्थावर का स्पष्ट वर्गीकरण उपलब्ध होता है। उसमें स्पष्टतः पृथ्वी, अप् (पानी) और वनस्पति को स्थावर तथा अग्नि, वायु एवं द्वीन्द्रियादि को त्रस माना गया है। आचार्य मलयगिरि ने जीवाभिगमसूत्र की टीका में त्रस एवं स्थावर के वर्गीकरण के आधार को प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि जो प्रतिकूल परिस्थितियों का त्याग करके दूसरे स्थान पर जाते हैं, अथवा जो इच्छापूर्वक ऊर्ध्व, अधो एवं तिर्यक् – दिशा में गमन करते हैं, वे त्रस हैं। उन्होंने लब्धि की अपेक्षा से तेजस् (अग्नि) और वायु को स्थावर किन्तु गति की अपेक्षा से त्रस कहा है। जीवाभिगमसूत्र का यह दृष्टिकोण उत्तराध्ययनसूत्र में वर्णित त्रस एवं स्थावर के वर्गीकरण से साम्य रखता है।
(छ) तत्त्वार्थसूत्र उत्तराध्ययनसूत्र के समान ही तत्त्वार्थसूत्र (श्वेताम्बर परम्परा के मूल पाठ) में तथा आचार्य उमास्वाति कृत तत्त्वार्थसूत्र के स्वोपज्ञभाष्य में पृथ्वी, अप् एवं वनस्पति को स्थावरनिकाय तथा अग्नि, · वायु एवं द्वीन्द्रियादि को त्रसजीवनिकाय में वर्गीकृत किया गया है। दिगम्बरपरम्परा की तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में पृथ्वी, अप, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पांचों को स्थावर माना है।
(ज) पंचास्तिकाय पंचास्तिकाय के रचयिता आचार्य कुन्दकुन्द ने पांच प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों में केवल पृथ्वी, अप् और वनस्पति को स्थावर शरीर युक्त तथा अनिल
४२ जीवाभिगम १/१२ एवं ७५ - (उवंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ २१७ एवं २२४)। ४३ 'गतित्रसेष्वन्तर्भावविवक्षणात, तेजोवायूनां लब्ध्या स्थावराणामपि सतां'
-जीवाभिगम टीका (उद्धृत् -'डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ', पृष्ठ १३०) । ४४ तत्त्वार्थसूत्र २/१२, १३ एवं १४ । ४५ तत्त्वार्थभाष्य २/१३ पृष्ठ ४० । ४६ (क) तत्त्वार्थसूत्र (सर्वार्थसिद्धि टीका ) २/१२ पृष्ठ १२३;
(ख) वही (राजवार्तिक टीका) २/१२ पृष्ठ १२६ ।
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