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प्रकार के जीव माने गये हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में इन षट्जीवनिकाय को त्रस एवं स्थावर ऐसे दो वर्गों में विभाजित किया गया है। षट्जीवनिकाय में त्रस के अन्तर्गत किन्हें लेना एवं स्थावर के अन्तर्गत किन्हें लेना, इस प्रश्न पर जैन दार्शनिकों में अपेक्षा भेद से अन्तर देखा जाता है। उत्तराध्ययनसूत्र आदि प्राचीन आगमों में जहां तीन स्थावर और तीन त्रस की अवधारणायें पायी जाती हैं वहां परवर्ती ग्रन्थों में पांच स्थावर और छटे त्रस की अवधारणा भी मिलती है। यहां हम उत्तराध्ययनसूत्र आदि कुछ प्राचीन ग्रन्थों के आलोक में इसकी चर्चा करेंगे।
(क) उत्तराध्ययनसूत्र उत्तराध्ययनसूत्र के २६वें एवं ३६वें अध्ययन में षट्जीवनिकाय के जीवों का उल्लेख है। २६वें अध्ययन में इन्हें त्रस एवं स्थावर के रूप में विभक्त न करके इनके नामों का उल्लेख निम्न क्रमानुसार किया गया है - पृथ्वीकाय, अप्काय (जल), तेजस्काय (अग्नि), वायुकाय, वनस्पतिकाय एवं त्रसकाय। उत्तराध्ययनसूत्र के ३६वें अध्ययन में सर्वप्रथम षट्जीवनिकाय को त्रस एवं स्थावर के रूप में वर्गीकृत किया है; फिर पृथ्वी, अप एवं वनस्पति को स्थावर के अन्तर्गत तथा अग्नि, वायु को एकेन्द्रिय त्रस, द्वीन्द्रिय आदि उदार (स्थूल) त्रस को त्रसकाय के अन्तर्गत रखा गया
(ख) आचारांगसूत्र __ आचारांगसूत्र में त्रस एवं स्थावर के वर्गीकरण का स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है परन्तु आचारांग के प्रथम अध्ययन के द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ एवं पंचम - इन चार उद्देशकों में क्रमशः पृथ्वी, अप, अग्नि
और वनस्पति इन चार प्रकार के जीवों की हिंसा का विशद विवरण प्रस्तुत किया गया है। तत्पश्चात् षष्ठ अध्ययन में त्रसकाय एवं सप्तम अध्ययन में वायुकाय की
३७ (क) आचारांगप्रथम अध्ययन ;
(ख) ऋषिभावित २५/२% (ग) उत्तराध्यययन ३६/३० एवं ३१; (घ) दशवकालिक ६/२६ से ४५ ।
३८ (क) उत्तराध्ययनसूत्र २६/३० एवं ३१;
(ख) उत्तराध्ययनसूत्र ३६/६६ एवं १०७ ।
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