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इसकी परिधि इससे लगभग तिगुनी है। उत्तराध्ययनसूत्र की टीका में इसे स्पष्ट करते हुए इसकी परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार एवं एक योजन से कुछ अधिक प्रतिपादित की है। इसकी मोटाई मध्य में आठ योजन, तत्पश्चात् क्रमशः कुछ-कुछ कम होती हुई अन्तिम किनारों पर मक्खी के पंख से भी पतली हो जाती है।
यह स्वाभाविक रूप से अर्जुन अर्थात् श्वेत-सुवर्ण के समान उज्ज्वल है तथा शंख, अंकरत्न और कुन्दपुष्प के समान श्वेत, निर्मल और शुभ्र है। इषत्प्राग्भारा पृथ्वी के तल से एक योजन ऊपर लोकान्त है। योजन के अन्तिम कोस के छठे भाग में सिद्धात्मायें भवप्रंच से मुक्त होकर स्वस्वरूप में संस्थित रहती हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में सिद्धशिला का अपर नाम “सीता' भी मिलता है।
औपपातिकसूत्र में इसके १२ नाम वर्णित है- (१) ईषत्; (२) ईषत्प्राग्भारा; (३) तनुः (४) तनु तनुः (५) सिद्धि; (६) सिद्धालय; (७) मुक्ति; (८) मुक्तालय; (६) लोकाग्र; (१०) लोकाग्रस्तूपिका; (११) लोकाग्रप्रतिबोधना और (१२) सर्वप्राणभूतजीवसत्त्व सुखावह। सिद्धशिला का शास्त्र-प्रचलित नाम 'ईषत्प्राग्भारा' है। ५.५ संसारी जीवों के भेद
. संसारी जीवों के मुख्यतः नरक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देव ये चार भेद होते हैं पुनश्च इन चारों के अनेक अवान्तर भेद होते हैं। संसारी जीवों के भेद-प्रभेदों का उल्लेख करने से पूर्व हम यहां त्रस एवं स्थावर के वर्गीकरण का आधार क्या है ? इस पर विचार करना आवश्यक समझते हैं। ५.६ त्रस एवं स्थावर जीवों के विभिन्न वर्गीकरण
. जैनदर्शन में संसारी जीवों को षट्जीवनिकाय में वर्गीकृत किया गया है। आचारांग, ऋषिभाषित, उत्तराध्ययनसूत्र एवं दशवैकालिक आदि आगमों में षट्जीवनिकाय के अन्तर्गत पृथ्वी, अप् (जल), अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस ये छ:
- लक्ष्मीवल्लभगणि
३२ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/५६ एवं ५७ । ३३ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३३५६ । ३४. उत्तराध्ययनसूत्र ३६/५६ । ३४ उत्तराध्ययनसूत्र - ३६/६०, ६१, ६२ एवं ६३ । ३६ औपपातिक सूत्र १६३
- (उवंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ७५ )
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