________________
आकाशक्षेत्र में अन्य को बाधित किये बिना रह सकती हैं, तो फिर अनन्त सिद्धों के आत्मप्रदेशों को जो अमूर्त हैं, एक ही आकाशक्षेत्र में परस्पर अबाधित होकर रहने में . कैसे बाधा आ सकती है।
___एक अन्य उदाहरण से भी इसे समझा जा सकता है- जैसे किसी मर्यादित स्थान पर सैंकड़ों दीपक जला दिए जाएं, तो उन सभी का प्रकाश एक दूसरे के प्रकाश को बिना बाधा उत्पन्न किये एक ही आकाशक्षेत्र में अवग़ाहित करके रहता है। यद्यपि प्रकाश मूर्त है, तथापि वह दूसरे प्रकाश को स्थान देने में बाधक नहीं है, फिर अमूर्त आत्मप्रदेश दूसरी आत्मा के प्रदेशों के लिए बाधारूप कैसे हो सकते हैं ? यही कारण है कि अनादिकाल से लेकर आज तक उस पैंतालीस लाख योजन के सिद्धस्थान में अनन्त आत्मायें अवस्थित हो चुकी हैं, भविष्यकाल में अनन्त आत्मायें अवस्थित होंगी अर्थात् वहां उन सबको स्थान मिलता रहा है और मिलता
रहेगा।
सिद्धों के अवस्थान की प्ररूपण ' निर्वाण प्राप्त मुक्त आत्मायें जहां रहती हैं उस स्थान को 'मोक्षस्थान' या 'सिद्धस्थान' कहा जाता है। उत्तराध्ययनसूत्र में इसके अनेक नाम हैं : निर्वाण, अबाध, सिद्धि, लोकाग्र, क्षेम, शिव, अनाबाध, उत्तमस्थान, नीरज, परमगति, अनुत्तरसिद्धि, उत्तमगति आदि। ‘शक्रस्तव' में भी इसके अन्य अनेक नाम मिलते हैं - अचल, अरूह, अनंत, अक्षय, अव्याबाध, अपुनरावृत्ति, सिद्धिगति। यह स्थान जरा, व्याधि, वेदना और मृत्यु से रहित है। इस मर्त्यलोक से देह, कर्ममुक्त होकर 'सिद्धस्थान' में जाकर 'सिद्ध' कहलाने वाली आत्मायें फिर वहां से लौट कर इस संसार में नहीं आती हैं।
मुक्त आत्मायें लोक और अलोक का जहां संधि-स्थल है वहां निवास करती हैं। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार सिद्ध अलोक में नहीं जाते हैं; लोक के अग्रभाग में प्रतिष्ठित होते हैं। 'सर्वार्थसिद्ध' नामक देवलोक से १२ योजन ऊपर ईषत्प्राग्भारा नाम की पृथ्वी, जो उत्तान छत्राकार है, सिद्धस्थान है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार ईषत्प्रागभारा पृथ्वी की लम्बाई-चौड़ाई पैंतालीस लाख योजन एवं
३० उत्तवध्ययनसूत्र १०/३, P/78 7/३५, १२४, २३/६३ पर्व ६२
३० उत्तराध्ययनसूत्र १०/३१, १३/३५, ११/३५, १८/५४, २३/६३ एवं ३६/६३ । ३१ 'सिवमयलमरूअं ....... सिद्धिगइ नामधेयं'
- नमुत्युणसूत्र ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org