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उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकार लक्ष्मीवल्लभगणि के अनुसार सिद्धों की शारीरिक अवगाहना नहीं होती है; अपितु आत्मप्रदेशों द्वारा आकाशप्रदेश का अवगाहन होता है।" अमूर्त होते हुए भी उनके आत्मप्रदेशों का प्रसार तो है ही। कोई भी अस्तिकायद्रव्य प्रदेशप्रचयत्व से रहित नहीं होता। सिद्धों के आत्मप्रदेश जितने आकाशप्रदेश को घेरते है वह सिद्धों की अवगाहना कहलाती है ।
पूर्व जन्म की अन्तिम देह का जो विस्तारक्षेत्र होता है उससे त्रिभागहीन (एक तिहाई कम) सिद्धों की अवगाहना होती है। उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकार गणिवर भावविजयजी के अनुसार उत्कृष्ट अवगाहना पांच सौ धनुष की मानी जाती है। अतः मुक्त अवस्था में शुषिर (शरीर के खाली पोले अंश) से रहित आत्मप्रदेशों के सघन हो जाने से वह घटकर त्रिभागहीन अर्थात् तीन सौ तैंतीस धनुष, बत्तीस अंगुल रह जाती है और जघन्य (सबसे कम) अवगाहना दो हाथ वाली आत्मा की एक हाथ आठ अंगुल प्रमाण होती है एवं टीकाकार के अनुसार मध्यम अवगाहना जघन्य एवं उत्कृष्ट के मध्यवाली अर्थात् जघन्य से अधिक एवं उत्कृष्ट से कम है। औपपातिकसूत्र में उत्कृष्ट एवं जघन्य के परिमाण के साथ मध्यम अवगाहना का परिमाण चार हाथ और तिहाई भाग कम (एक हाथ सोलह अंगुल) बतलायी गई है। . प्रत्येक सिद्धात्मा की अपनी-अपनी अवगाहना होती है, फिर भी समान आकाश प्रदेश में रहकर भी एक सिद्धात्मा की अवगाहना दूसरे की अवगाहना (आत्मप्रदेशों के विस्तार) को प्रभावित नहीं करती है। एक ही आकाशक्षेत्र में एक दूसरे को बाधित. किये बिना अनन्त सिद्धात्माओं के आत्मप्रदेश रह सकते हैं। इसे स्थूल उदाहरण से इस प्रकार समझा जा सकता है- जैसे एक ही आकाशक्षेत्र में अनेक ध्वनितरंगें या चित्रतरंगें एक साथ अवगाहित होकर भी आपस में सम्मिलित नहीं होती हैं, अपितु अपना अलग अस्तित्व रखती हैं, यह तथ्य आज दूरसंचार और दूरदर्शन के माध्यम से प्रमाणित हो चुका है। इसी प्रकार अनेक सिद्धों के आत्मप्रदेश भिन्न-भिन्न होकर भी एक ही स्थान पर अवगाहित होते हैं। ज्ञातव्य है कि जब दूरदर्शन आदि की ध्वनि या प्रकाश तरंगें जो पौद्गलिक एवं मूर्त होकर भी एक ही
२७ 'अवगाहयते जीवेनाकाशोऽनये इति अवगाहना' .२८ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३३५५
२६ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३३५८
- उत्तराध्ययनसूत्र टीका, पत्र ३३५८ - लक्ष्मीवल्लभगणि । - भावविजयजी। - लक्ष्मीवल्लभगणि।
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