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उत्तराध्ययनसूत्र में उल्लिखित सिद्ध के छ: भेदों में परवर्ती ग्रन्थों में उपलब्ध पन्द्रह ही भेदों का अन्तर्भाव हो सकता है।
सिद्धों के इन भेदों का वर्णन जैनदर्शन के उदार दृष्टिकोण का परिचायक है। जिस आत्मा ने कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त कर लिया हैं; वंह वीतराग आत्मा चाहे किसी भी वेश या लिंग का क्यों न हो, उसका मोक्षपद को प्राप्त . करना असंदिग्ध है क्योंकि मोक्ष की प्राप्ति में बाह्य वेश, स्त्री, पुरूष और नपुंसक की शारीरिक संरचना प्रतिबन्धक नहीं है। मोक्ष के प्रतिबन्धक रागद्वेष हैं। इस प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र की इस विवेचना के अन्तर्गत हमें जैनदर्शन की निष्पक्षता का परिचय मिलता है, क्योंकि इसमें अन्य किसी परम्परा के वेशधारी को मोक्ष का अनधिकारी नहीं बतलाया गया है। मात्र एक ही शर्त है कि उसे वीतराग होना चाहिए। इस सम्बन्ध में आचार्य हरिभद्र ने कहा है
"सेयंबरो वा आसम्बरो वा, बुद्धो वा तहेव अन्नोवा। समभाव भाविअप्पा लहइ मोक्खं न संदेहो ।।
- व्यक्ति चाहे श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या अन्य किसी परम्परां का, यदि वह समभाव की साधना करेगा, तो उसे मोक्ष अवश्य प्राप्त होगा। इसी बात को प्रकारान्तर से आचार्य हेमचन्द्र ने भी कहा है -
'भवबीजांकुरजनना रागाद्या क्षयमुपागतायस्य। ब्रह्मा वा विष्णु र्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मैः ।।
अर्थात् जिसने संसार परिभ्रमण के कारण रूप, राग-द्वेष आदि का क्षय कर दिया है वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शंकर हो या जिन हो, वन्दनीय है। निष्कर्षतः समभाव से भावित या राग द्वेष से पूर्णतः रहित आत्मा मोक्षपद की अधिकारी है।
सिद्धों की अवगाहना उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार उत्कृष्ट, मध्यम एवं जघन्य तीनों अवगाहना वाले जीव सिद्ध हो सकते हैं एवं उनके अन्तिम शरीराकार से त्रिभागहीन सिद्धों की अवगाहना होती है।
२५ 'उक्कोसोगाहणाए य, जहन्नमज्झिमाइ य ।
उड्ढे अहे य तिरियं य, समुद्दम्मि जलम्मि य ॥' २६ 'उस्सेहो जस्स जो होइ, भवम्मि चरिमम्मि उ । तिभागहीणा तत्तो य, सिद्धाणोगाहणा भवे ।।'
- उत्तराध्ययनसूत्र ३६/५० ।
- उत्तराध्ययनसूत्र ३६/६४ ।
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