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चाहे तो भी उस जंगल में उसे वैसी कोई उपमा नहीं मिलती; जिसके आधार पर वह नगर में अनुभूत सुखों का विवेचन कर सके। ठीक इसी प्रकार सिद्धों के अनुपम सुखों की तुलना सांसारिक सुखों से नहीं की जा सकती है। वहां उनकी तृप्ति का अनुभव किया जा सकता है, उसे कहकर नहीं बताया जा सकता।
सिद्धों के सुख की स्पष्ट एवं मार्मिक व्याख्या डॉ. सागरमल जैन ने प्रस्तुत की है। आपका कहना है कि सिद्धों का सुख तो स्वास्थ्य रूप है। जैसे रोग का दूर होना आरोग्य को प्राप्त करना है; वैसे कर्मरूपी रोग का दूर होना ही आत्मा का आरोग्य अर्थात् अनन्तसुख को पाना है। संक्षेप में सिद्धों का सुख, दुःख की आत्यन्तिक निवृत्तिरूप है।
सिद्ध जीवों के प्रकार सिद्धों की आत्मा स्वस्वरूप एवं लक्षण की अपेक्षा से तो एक ही प्रकार की है। उनमें किसी प्रकार का कोई भेद नहीं है; किन्तु जिस पर्याय से वे सिद्ध होते हैं, उस पूर्वपर्याय या पूर्वावस्था की अपेक्षा से उनके अग्रविवेचित भेद किये गये हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में सिद्ध के निम्न छ: भेद बतलाये हैं" - उत्तराध्ययनसूत्र का यह विभाजन लिंग (स्त्री, पुरूष आदि की शारीरिक संरचना) एवं वेश के आधार पर किया गया है -
(१) स्त्रीलिंगसिद्ध (२) पुरूषलिंगसिद्ध (३) नपुंसकलिंगसिद्ध (४) स्वलिंगसिद्ध (५) अन्यलिंगसिद्ध (६) गृहलिंगसिद्ध
प्रज्ञापना, नन्दीसूत्र एवं नवतत्त्वप्रकरण आदि परवर्ती ग्रन्थों में सिद्धों के १५ भेद प्रदर्शित किये गये हैं।2 उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकार लक्ष्मीवल्लभगणि ने भी सिद्धों के पन्द्रह भेदों का उल्लेख किया है। गणि भावविजयजी आदि टीकाकारों की मान्यता है कि उत्तराध्ययनसूत्र की गाथा में प्रयुक्त 'च' शब्द में सिद्धों
- (उवंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ७७)।
१६ औपपातिक सूत्र १६५ गाथा १३ से १७ २० व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर। २१ 'इत्थी पुरिससिद्धा य, तहेव य नपुंसगा।
सलिंगे अन्नलिंगे य, गिहिलिंगे तहेव य ॥' २२ (क) प्रज्ञापना १/१२ (ख) नन्दीसूत्र -३१
(ग) नवतत्त्व प्रकरण गाथा ५५ एवं ५६ । २३ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३३५७ ।
- उत्तराध्ययनसूत्र ३६/४६ । - (उवंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड २, पृष्ठ १०); - (नवसुत्ताणि, लाडनूं, पृष्ठ २५७);
- लक्ष्मीवल्लभगणि।
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