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सिद्ध आत्मा के गुण उत्तराध्ययनसूत्र के 'चरण-विधि' नामक इकतीसवें अध्ययन में सिद्ध जीवों के इकतीस अतिशयरूप गुण बतलाये हैं। इसमें उनके नामों का स्पष्ट उल्लेख नहीं है । उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकार गणिवर भावविजयजी व नेमिचंद्राचार्य ने सिद्धों के निम्न ३१ गुणों का उल्लेख किया है" - ५ संस्थानाभाव, ५ वर्णाभाव २ गन्धाभाव, ५ रसाभाव, ८ स्पर्शाभाव, ३ वेदाभाव, अकायत्व, असंगत्व, तथा अजन्मत्व। लक्ष्मीवल्लभगणिवर ने भी ५ संस्थानाभाव आदि इन्हीं ३१ गुणों का वर्णन किया है। एक अन्य अपेक्षा से ज्ञानावरणीयकर्म की ५, दर्शनांवरणीयकर्म की वेदनीय की २, मोहनीय की २, आयुष्यकर्म की ४, गोत्र कर्म की २, नामकर्म की २ तथा अन्तरायकर्म की ५, इस प्रकार कुल ३१ कर्म प्रकृतियों के अभाव रूप सिद्धों के इकतीस गुणों का उल्लेख भी किया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में नामकर्म की मूलतः दो प्रकृतियों का ही उल्लेख है। इस प्रकार उसमें कुल उत्तरकर्म प्रकृतियां ३१ वर्णित हैं। अतः उनके अभाव से आत्मा में जिन ३१ गुणों की अभिव्यक्ति होती हैं वे सिद्धों के ३१ गुण हैं। वस्तुतः तो आत्मा में अनन्त गुण हैं, किन्तु आठ मूलकर्म प्रकृतियों के क्षय की अपेक्षा से आठ गुण और उत्तरकर्म प्रकृतियों के क्षय की अपेक्षा से ३१ गुण कहे गये हैं।
सिद्धात्माओं का आनन्द उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार सिद्ध आत्मा का सुख अनुपम एवं अतुलनीय है। इसी का स्पष्टीकरण हमें औपपातिकसूत्र' में इस प्रकार मिलता है'सिद्ध भगवान को पूर्ण मुक्ति का जो अव्याबाध शाश्वत् सुख प्राप्त है वह न तो मनुष्य को प्राप्त है और न ही समग्र देवताओं को।' इसमें आगे और भी कहा गया है कि सिद्ध आत्माओं के अनन्तसुख (आनन्द) को उपमित करने के लिए सांसारिक विषयजन्य एवं अल्पकालिक सुखों की कोई उपमा नहीं दी जा सकती है। जैसे कोई वनवासी व्यक्ति पहली बार किसी समृद्धिशाली नगर के सुखों का अनुभव करने के बाद जब पुनः अपनी बस्ती में आकर अपने साथियों को नगर के सुखों को बताना
१७ उत्तराध्ययनसूत्र टीका
(क) पत्र.३०२६ ।
(ख) ३०३७ । १८ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ३०५३
- गणिवर भावविजयजी; - नेमिचन्द्राचार्य। - लक्ष्मीवल्लभगणिवर।
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