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संसारी कहलाते हैं। इसके विपरीत जो जीव सर्व कर्मों से मुक्त होकर लोक के अग्रभाग में स्थित हो जाते हैं तथा पुनः संसार में नहीं आते हैं, वे सिद्ध या मुक्त कहलाते हैं।
हम उत्तराध्ययनसूत्र के क्रम के अनुसार सर्वप्रथम सिद्ध जीवों का स्वरूप, गुण, प्रकार, अवगाहना एवं स्थान आदि का विवेचन प्रस्तुत कर रहे हैं
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५.४ सिद्धजीवों के भेद
उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार कर्ममल को पूर्णतः क्षय करने वाली आत्मा को सिद्ध कहते हैं। 12 इसमें जो जीव मोक्ष को प्राप्त करते हैं उन्हें सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, सर्व दुःखप्रतिहत, निरंजन, निःसंग, परब्रह्म, परमज्योति, शुद्धात्मा, परमात्मा आदि कहा है। 13
सिद्धों के स्वरूप की चर्चा करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र के छत्तीसवें अध्ययन में कहा है कि सिद्ध अरूप हैं, सघन हैं, ज्ञान-दर्शन से सम्पन्न हैं एवं अतुल सुख के स्वामी हैं. 14 औपपातिकसूत्र में भी सिद्धों का यही लक्षण किया गया है। 15 सिद्धों के विधेयात्मक एवं निषेधात्मक स्वरूप एवं स्वभाव का वर्णन 'बृहद्रव्यसंग्रह' में अग्रलिखित क्रम से मिलता है जो जीव आठ कर्मों (ज्ञानावरणादि) से रहित हैं, सम्यक्त्व आदि गुणों से युक्त हैं, अन्तिम शरीर से कुछ कम अवगाहनावाले हैं, नित्य हैं, लोक के अग्रभाग में स्थित हैं तथा ज्ञान दर्शन रूप पर्यायों की अपेक्षा से उत्पाद्व्यय धर्म से युक्त हैं; वे सिद्ध हैं। " जैनदर्शन के अनुसार स्वरूप की अपेक्षा से सभी सिद्ध समान हैं, एक हैं, किन्तु प्रत्येक जीव की सिद्धावस्था में भी वैयक्तिक एवं स्वतन्त्र सत्ता बनी रहती है । इस अपेक्षा से सिद्धात्मायें अनन्त हैं।
१२ 'सिद्धे हवइ नीरए'
१३ (क) उत्तराध्ययनसूत्र ६ / ५८;
उत्तराध्ययनसूत्र २८/३६; (ग) उत्तराध्ययनसूत्र २६ / ६ ।
१४ 'अरूविणो जीवघणा, नाणदंसणसणिया ।
अउंलं सुहं संपत्ता, उवमा जस्स नत्थि उ ।।' १५. 'असरीरा जीवघणा, उवउत्ता दंसणे य णाणे य । · सागारमणागारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ।।'
औपपातिक सूत्र १६५ गाथा ११ १६ 'णिकम्मा अट्ठगुणा किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा । लोयग्गठिदा णिच्चा अप्पादवएहिं संजुत्ता ।। '
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• उत्तराध्ययनसूत्र १८ / ५४ |
उत्तराध्ययनसूत्र ३६ / ६६
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( उवंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ७६ )।
वृहद्रव्यसंग्रह १४ ।
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