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आनन्द आत्मा का मूल गुण है। राग-द्वेष अथवा कषायों के क्षय होने पर समस्त आकांक्षायें और तज्जनित तनाव समाप्त हो जाते हैं। फलतः आत्मा अनन्तसुख या. आनन्द की अनुभूति करता है; जैसे रोग नष्ट होने पर व्यक्ति स्वस्थता की अनुभूति करता है।
___ जीव की विभिन्न अवस्थाओं की अपेक्षा से उसके स्वरूप को निम्न स्वभाव वाला माना गया है :
'यः कर्ता कर्मभेदानां, भोक्ता कर्मफलस्य च।
___ संसर्ता परिनिर्वाता, सह्यात्मा नान्यलक्षणः ।। - जो विविध प्रकार के कर्मों का कर्ता है, कर्मों के फल का भोक्ता है, संसार में परिभ्रमण करने वाला है और कर्मों से मुक्त होकर निर्वाण को प्राप्त करने वाला है, वह आत्मा है। इनसे भिन्न जीव का अन्य कोई लक्षण नहीं है।
आत्मा के व्यापक स्वरूप को समाहित करते हुए 'बृहद्रव्यसंग्रह में कहा गया है कि जो उपयोगमय है, अमूर्त है, कर्ता है, स्वदेह परिमाण है, कर्म-फल भोक्ता है, संसारस्थ है, सिद्ध है और स्वभावतः उर्ध्वगामी है; वह जीव है।
सामान्यतः संसार में परिभ्रमणशील आत्मा के लिए 'जीव' एवं मक्त आत्मा के लिए 'आत्मा' शब्द का प्रयोग किया जाता है; आगमों में इनका पर्यायवाची के रूप में भी प्रयोग देखा जाता है। उत्तराध्ययनसूत्र में जीवद्रव्य का अतिविस्तृत विवेचन किया गया है। जिसका वर्णन निम्नानुसार है -
५.३ जीवों के भेद
उत्तराध्ययनसूत्र के छत्तीसवें अध्ययन में जीव के मुख्यतः दो भेद किये गये हैं- १. सिद्ध एवं २. संसारी।" जो जीव अपने कृत कर्मों का फल भोगने के लिए संसार में संसरण करते हैं अर्थात् विविध योनियों में परिभ्रमण करते हैं वे
१० 'जीवो उवओगमओ, अमुत्ति कता सदेहरिमाणो।
भोत्ता संसारत्यो सिखो, सो विस्ससोऽगई ।।। ११ 'संसारत्या य सिखा य, दुविहा जीवा वियाहिया।'
- बृहद्रव्यसंग्रह २। - उत्तराध्ययनसूत्र ३६/४८ |
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