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१. आत्मा कर्ता एवं भोक्ता है
उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार आत्मा कर्ता एवं भोक्ता है। स्वयं के सुख दुःख का कर्ता एवं भोक्ता आत्मा स्वयं है; अन्य कोई किसी को न दुःख दे सकता है न सुख। आत्मा स्वयं ही अपना हित/अहित करती है। उत्तराध्ययनसूत्र में आत्मा को कूटशाल्मलि वृक्ष, कामदुधा धेनु एवं नन्दनवन से उपमित किया है अर्थात् आत्मा जैसा चाहे वैसा कर्म करके अपना भला/बुरा कर सकती है। यदि अच्छा काम करती है तो वह अपनी सबसे बड़ी मित्र है, कामधेनु है तथा नन्दनवन है; यदि बुरे कार्य करती है तो वह अपनी सबसे बड़ी शत्रु है, वैतरणी नदी है तथा कूटशाल्मलि वृक्ष है। अतः जीव जैसा करता है वैसा ही पाता है। इसमें पर द्रव्य ईश्वर आदि का कोई हस्तक्षेप नहीं है। जीव अच्छे कर्म करता है तो सुखी होता है और बुरे कर्म करता है तो दुःखी होता है।
२. आत्मा स्वयं का त्राता है अहिंसा का पालन करने वाला, स्वयं में रमण करने वाला, जितेन्द्रिय आत्मा स्वयं का त्राता हो सकता है एवं वह पर को भी त्राण/शरण देने में समर्थ होता है । उत्तराध्ययनसूत्र के बीसवें अध्ययन में अनाथी मुनि कहते हैं: “मैं अहिंसक जीवन स्वीकार करके अपना, दूसरों का तथा त्रस एवं स्थावर जीवों का 'नाथ' हो गया"। अहिंसक व्यक्ति सभी प्राणियों को अभय प्रदान करता है, इस रूप में वह · दूसरों का नाथ/ स्वामी कहा जा सकता है ।
३. आत्मा आनन्द स्वरूप है .. जैनदर्शन आनन्द अर्थात् अनन्तसुख को आत्मा के स्वलक्षण के रूप में स्वीकार करता है। वेदान्तदर्शन में भी आत्मा को सत्, चित् एवं आनन्द रूप माना गया है, किन्तु न्याय-वैशेषिक एवं सांख्य दर्शन आनन्द को आत्मा का स्वलक्षण नहीं मानते हैं। न्याय-वैशेषिकदर्शन सुख को चेतना का आगन्तुक गुण मानते हैं तथा सांख्यदर्शन इसे प्रकृति का गुण मानता है; आत्मा का नहीं। जैनदर्शन के अनुसार
७ 'अप्पा कत्ता विकत्ताय, दुहाण य सुहाण य । अप्पा मित्तममित्तं च, दुष्पट्ठियसुट्ठिओ।' उत्तराध्ययनसूत्र २०/३६ ।
- उत्तराध्ययनसूत्र २०/३७ ।
'ततो हं नाहो जाओ, अप्पणो य परस्सय । सव्वेसिं चेव भूयाणं, तसाण थावराण य॥३५॥'
- उत्तराध्ययनसूत्र २०/३५ । ।
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