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कोई अन्तर ही नहीं होगा। यहां इतना स्पष्टीकरण कर देना आवश्यक है कि उपयोग तो प्रत्येक जीव को होता है परन्तु वह जीव की अवस्था अथवा शक्ति के विकास के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है अर्थात् उसमें तरतमता होती है। निगोद के जीवों का उपयोग अतिमन्द या अत्यल्प विकसित होता है, उनकी अपेक्षा अन्य जीवों का उपयोग उनके ऐन्द्रिक विकास के आधार पर क्रमशः विकसित होता जाता है । केवलज्ञानी का उपयोग पूर्णतः विकसित होता है। उपयोग की इस तरतमता का कारण जीव के साथ सम्बद्ध कर्मों का आवरण है। यह आवरण जितना अधिक प्रगाढ़ होता है, उपयोग उतना ही मन्द होता है और यह आवरण जितना अल्प होता है उपयोग उतना ही अधिक विकसित होता है। .
उत्तराध्ययनसूत्र की टीकाओं में उपयोग के दो भेद प्रतिपादित किये गये हैं। १. ज्ञानोपयोग २. दर्शनोपयोग। विषय का सामान्य बोध 'दर्शनोपयोग' या निराकार उपयोग कहलाता है तथा विषय का विशेष बोध 'ज्ञानोपयोग' या साकार उपयोग कहलाता है। ज्ञानोपयोग के पांच प्रकार हैं- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान एवं केवलज्ञान । दर्शनोपयोग के चार भेद है:- चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन एवं केवलदर्शन । इन भेदों की विस्तृत चर्चा 'ज्ञानमीमांसा' .. एवं 'कर्ममीमांसा' (अध्याय ३ तथा ६) में की गई है। ..
उपयोग को चेतना भी कहा जाता है। आत्मा के चेतना लक्षण को सभी भारतीय दर्शन समवेत स्वर से स्वीकार करते हैं। फिर भी जहां सांख्य, योग और जैनदर्शन चेतना को आत्मा का स्व लक्षण मानते हैं वहीं न्याय-वैशेषिकदर्शन के अनुसार चेतना आत्मा का आगन्तुक गुण है अर्थात् वे मुक्त आत्मा में चेतना का अभाव मानते हैं। जैनदर्शन के अनुसार मुक्तावस्था में आत्मा की चेतना-शक्ति का पूर्ण प्रकटीकरण हो जाता है तथा संसारी अवस्था में वह चेतन-शक्ति आवृत रहती है। आत्मा के स्वरूप को हम निम्न बिन्दुओं के द्वारा प्रस्तुत कर सकते हैं
६ उत्तराध्ययनसूत्र टीका (आगमंचांगी क्रम ४१/५) - (क) पत्र २७६६ (भावविजयजी); (ख) पत्र २७७१ (शान्त्याचाय); और (ग) पत्र २७८६ (कमलसंयमोध्याय)।
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