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जैसे ईथर, गुरुत्वाकर्षण आदि। उस प्रकार प्राणी की अनुभूति, चिन्तन और ज्ञान उसे स्वतः प्रत्यक्ष होता है । अतः उसकी सत्ता स्वतः सिद्ध है ।
५.२ आत्मा का स्वरूप
आत्मा की सत्ता स्वीकार कर लेने पर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आत्मा का स्वरूप क्या है ?
आत्मस्वरूप का प्रतिपादन करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि आत्मा अमूर्त है, नित्य है तथा कर्मों के कारण पुनः पुनः जन्म-मरण करती है। पुनश्च उत्तराध्ययनसूत्र में अनेक सन्दर्भो में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि यह जन्म-मरण को धारण करने वाली आत्मा कर्मों से मुक्त भी होती है।
जैनदर्शन आत्मा को एकान्त अमूर्त नहीं मानता है। उसके अनुसार आत्मा कथंचित् मूर्त एवं कथंचित् अमूर्त है। वह ज्ञानादि गुणों की अपेक्षा से या अनुभवगम्य सिद्ध-आत्मा की अपेक्षा से अमूर्त तथा सकर्म संसारी आत्मा के रूप में मूर्त है। उत्तराध्ययनसूत्र में आत्मा का लक्षण ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग बताया गया है। वस्तुतः जीव का असाधारण लक्षण 'उपयोग' है। उपयोग का अर्थ बोध रूप व्यापार किया जाता है। उपयोग शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ भी यही दर्शाता है कि "उपयुज्यते वस्तु परिच्छेदं प्रति व्यापार्यते जीवोऽनेनेत्युपयोग' – जिसके द्वारा जीव वस्तु का परिच्छेद अर्थात् बोध रूप व्यापार करता है या उसमें प्रवृत्त होता है, वह उपयोग कहा जाता है। उपयोग जीव का मूल लक्षण है, यह निगोद से लेकर सिद्ध तक के सभी जीवों में होता है।
. यहां प्रश्न हो सकता है कि निगोद जैसी जीव की अत्यल्प विकसित अवस्था में जीव का क्या उपयोग हो सकता है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि निगोदं में भी जीव को अक्षर के अनन्तवें भाग जितना उपयोग अवश्य होता है क्योंकि यदि इतना भी उपयोग न हो तो निगोद के जीव एवं जड़ में
- उत्तराध्ययनसूत्र १४/१६ |
अजमत्थहेऊ निययस्स बन्यो, संसारहेऊ च वयन्ति बन्यं ।। . ५ 'नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा ।
वीरियं उवओगो य, एवं जीवस लक्खणं ।।'
- उत्तराध्ययनसूत्र २८/११ ।
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