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में वर्णित नवतत्त्व निम्न हैं - जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा एवं मोक्ष।
उत्तराध्ययनसूत्र सूत्र की टीकाओं में नवतत्त्वों का संक्षिप्त स्वरूप निम्न रूप से प्रतिपादित किया गया है
चेतनालक्षण वाला जीव है, धर्मास्तिकाय आदि अजीव रूप हैं। संसारीजीव बद्ध होता है। वह अजीव/पुद्गल से सम्पृक्त होता है। अतः जीव एवं अजीव का संश्लेश बन्ध कहलाता है। बन्ध शुभ-अशुभ रूप होता है अतः शुभबन्ध पुण्य एवं अशुभबन्ध पाप है। कमों को आकर्षित करने वाला तत्त्व आश्रव है। गुप्ति आदि के द्वारा आश्रव का निरोध करने वाला तत्त्व संवर है। दूसरे शब्दों में कर्मों के आगमन को रोकने वाला तत्त्व संवर है। पूर्वकृत कर्मों से आंशिक मुक्ति निर्जरा है तथा समस्त कमों के क्षय होने पर आत्मा में अवस्थिति मोक्ष है।
गुरूवर्या हेमप्रभाश्रीजी म. सा. ने उपर्युक्त नौ तत्त्वों को जीव एवं अजीव, इन दो तत्त्वों में निम्नरूप से समाहित किया है।
पुण्य-पाप कर्म स्वरूप हैं। बन्ध पुण्य-पाप रूप है। कर्म पुद्गल रूप है और पुद्गल अजीव है। अतः पुण्य, पाप एवं बन्ध का अजीव में समावेश होता है। मिथ्यात्व आदि आत्म परिणाम रूप आश्रव का जीव में तथा पुदगल (कर्म) रूप आश्रव का अजीव में समावेश हो जाता है। आश्रव निरोध रूप संवर भी आत्मा का परिणाम विशेष होने से जीव के अन्तर्गत ही है। निर्जरा भी जीव रूप ही है क्योंकि आत्मा ही अपनी शक्ति से कर्म का क्षय करती है तथा सम्पूर्ण कर्मों का क्षय रूप मोक्ष भी आत्मस्वरूप होने से जीव है। इस प्रकार मुख्य दो ही तत्त्व हैं।
उत्तराध्ययनसूत्र में हमें तत्त्वों का वर्गीकरण निम्न चार रूपों में प्राप्त होता है - (१) जीवाजीवात्मक; (२) पंचास्तिकायरूप; (३) षद्रव्यात्मक; और (४) नवतत्त्वात्मक
६६ 'जीवाजीवा य बंधो य पुण्णं पावासवो तहा । संवरो निज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव ।।' - उत्तराध्ययनसूत्र २८/१४ । ६७ उत्तराध्ययनसूत्र टीका (आगम पंचांगी क्रमांक ४१/५); (क) पत्र - २७६७
- (भावविजय जी); (ख) पत्र - २७६३
- (नेमिचन्द्राचार्य); (ग) पत्र - २७६६
- (शान्त्याचार्य); (घ) पत्र - २८०२
- (लक्ष्मीवल्लभगणि); (छ) पत्र - २८०७
- (कमल संयमोपाध्याय)। ६८ प्रवचनसारोद्धार पृष्ठ ४४१
- साध्वी हेमप्रभा श्री।
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