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________________ १७६ इनमें प्रथम तीन वर्गीकरणों का आधार विश्व के मूलभूत घटकों की व्याख्या करना है जबकि अन्तिम अर्थात् नवतत्त्व रूप वर्गीकरण जीव और अजीव (पुद्गल) के पारस्परिक सम्बन्ध या उस सम्बन्ध के अभाव की व्याख्या करता है। उत्तराध्ययनसूत्र में जीव - अजीव, षट्द्रव्य तथा नवतत्त्व का स्पष्टतः वर्गीकरण मिलता है तथा पंचास्तिकाय का वर्णन षद्रव्य के अन्तर्गतउपलब्ध होता है। जैनदर्शन द्वैतवादी दर्शन है । वह मूलतत्त्व के रूप में जीव एवं अजीव इन दो तत्त्वों को स्वीकार करता है। वस्तुतः मूलतत्त्व तो दो हीं हैं। इन दो का ही विस्तार पंचास्तिकाय, षट्द्रव्य या नवतत्त्व है। सांख्यादि द्वैतवादी दर्शन भी पुरूष एवं प्रकृति ऐसे दो तत्त्वों को स्वीकार करते हैं। सांख्यसम्मत पुरूष को जीवतत्त्व तथा प्रकृति को अजीवतत्त्व के रूप में माना जा सकता है 1 पंचास्तिकाय में जीवास्तिकाय जीव तथा शेष धर्मास्तिकाय आदि चार अजीव हैं। इसी प्रकार षद्रव्य में भी जीवद्रव्य जीव तथा शेष धर्मे आदि पांच द्रव्य अजीव हैं तथा नवतत्त्व में जीवतत्त्व एवं अजीवतत्त्व दो मूल तत्त्व हैं I शेष पुण्य-पाप आदि सात तत्त्व या अपेक्षाभेद से आश्रव आदि पांच तत्त्व इन्हीं दो तत्त्वों की संयोग-वियोग रूप अवस्थाओं के सूचक हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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