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लोक के विभाग क्षेत्र की दृष्टि से उत्तराध्ययनसूत्र में लोक को तीन भागों में विभक्त किया गया है- (१) ऊपरी भाग (ऊर्ध्वलोक) (२) मध्यभाग (मध्यलोक) तथा (३) अधोभाग (अधोलोक)। यद्यपि उत्तराध्ययनसूत्र में इन तीनों विभागों का स्पष्टतः वर्णन नहीं है, फिर भी उसमें संकेत रूप से इनका वर्णन यत्र-तत्र उपलब्ध होता है।
(6) ऊर्ध्वलोक - मानव के निवासस्थल तिर्यकलोक से ऊपरी भाग को ऊर्ध्वलोक कहते हैं। यह ऊर्ध्वलोक देशोन सातरज्जू प्रमाण है। ऊर्ध्वलोक में मुख्यतः देवों का वास होता है। अतः उत्तराध्ययनसूत्र में इसके देवलोक, ब्रह्मलोक, यक्षलोक एवं स्वर्गलोक आदि नाम भी प्राप्त होते हैं। इस उर्ध्वलोक में देवों के कई विमान हैं एवं अन्तिम ‘सर्वार्थसिद्धि विमान' से १२ योजन ऊपर सिद्ध-शिला है।
(२) मध्यलोक - उत्तराध्ययनसूत्र में मध्यलोक को तिर्यक-लोक कहा गया है। इसमें जम्बूद्वीप एवं लवणसमुद्र आदि अनेक द्वीप और समुद्र हैं। इस तिर्यक्लोक के मध्य में जम्बूद्वीप एवं अन्त में स्वयंभूरमण समुद्र है। इन दोनों के मध्य में असंख्यात द्वीप और समुद्र इस तिर्यक क्षेत्रलोक में
... जम्बुद्वीप के मध्यभाग में रत्नप्रभा नरक के ऊपर मेरूपर्वत है। उस मेरू के मध्यभाग में आठ प्रदेशवाला रूचक है। यह रूचक गाय के स्तन के आकार का है। इसके चार प्रदेश ऊपर और चार नीचे हैं। यही रूचक दिशा विदिशा का प्रवर्तक और तीनों लोकों का विभाजक है। रूचक के ऊपरवर्ती ६०० योजन तथा अधोवर्ती ६०० योजन, कुल १८०० योजन का तिरछा लोक है।
६० 'उड्ढ अहे य तिरिय च' १७. (क) 'कम्मई दीव (ख) 'गळे सलोगर्य' (ग) 'खाए समिळे सुरालोगरम्भे' (घ) 'पुए बम्भलोगाओ'. ६२ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/५०।
- उत्तराध्ययनसूत्र ३६/५०।।
- उत्तराध्ययनसूत्र ५/२२; - उत्तराध्ययनसूत्र १/२४; - उत्तराध्ययनसूत्र १४/१ और
- उत्तराध्ययनसूत्र १५/२६ ।
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