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________________ उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार मुहूर्त, प्रहर दिन, पक्ष, मास आदि. व्यवहारकाल लोकाकाश के एक भाग मनुष्यक्षेत्र तक ही सीमित हैं। इस अपेक्षा सें व्यवहारकाल को असंख्य माना गया है, किन्तु दूसरी ओर निश्चय काल अनन्त है। १७० उपर्युक्त षट्द्रव्य की सहावस्थिति सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है। अतः षट्द्रव्यमय इस लोक का आकार प्रकार एवं स्वरूप क्या है ? अग्रिम क्रम में हम इसकी विवेचना प्रस्तुत करेंगे। 4.8 लोक का स्वरूप एवं प्रकार लोक शब्द लुक् धातु से बना है अर्थात् जो भी अवलोकित प्रतीत होता है, वह 'लोक' है। दूसरे शब्दों में हम दृश्यमान जगत को 'लोक' कह सकते हैं। लोक के लिए विश्व या ब्रह्माण्ड (Universe ) शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है। इस लोक से परे जो कुछ है अथवा जिसमें यह लोक अन्तर्भूत है उसे जैन दार्शनिकों ने अलोक कहा है। जैन दर्शन के अनुसार लोक षट्द्रव्यात्मक है, जबकि अलोक में मात्र आकाश द्रव्य की सत्ता है। उत्तराध्ययनसूत्र में जगत को लोक एवं अंलोक के रूप में विभाजित किया गया है। इसके छत्तीसवें अध्ययन में कहा गया है कि जहां जीव एवं अजीव (पुद्गल) की अवस्थिति है उसे 'लोक' एवं जहां मात्र आकाशद्रव्य की सत्ता है उसे अलोक कहते हैं। 54 प्रस्तुत प्रसंग में हमारा विवेचनीय विषय लोक है; क्योंकि अलोक के लिये तो इतना ही कहना पर्याप्त है कि वहां एक मात्र आकाश की सत्ता है। उसमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, और काल इन पांच द्रव्यों का अभाव है। लोक के स्वरूप की व्याख्या करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में इसे जीवाजीवात्मक एवं षट्द्रव्यात्मक कहा गया है।" ऋषिभाषित और भगवतीसूत्र में ५३ 'समएं समयखेत्तिए' ५४ 'जीवा चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए । अजीवदेसमागासे, अलोए से वियाहिए ।। ' ५५ (क) उत्तराध्ययनसूत्र ३६ / २; (ख) उत्तराध्ययनसूत्र २८/७ । Jain Education International उत्तराध्ययनसूत्र ३६/७ । उत्तराध्ययनसूत्र ३६ / २ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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