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निमित्त धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य है; वैसे द्रव्य के परिणत होने का भी कोई न कोई बाह्यनिमित्त अवश्य होना चाहिए और वह काल ही है। अतः काल भी एक स्वतन्त्र द्रव्य है।
काल को स्वतन्त्र न मानने के विरोध में कुछ दार्शनिकों ने एक प्रश्न उठाया है कि यदि अन्य द्रव्यों के पर्याय परिवर्तन का हेतुभूत कारण काल है और इस रूप में काल को स्वतन्त्र द्रव्य माना जाता है, तो फिर अलोकाकाश तथा लोक में भी समयक्षेत्र के अतिरिक्त क्षेत्र में होने वाले पर्याय परिवर्तन का हेतु क्या है ? यदि यह माना जाय कि वहां कालद्रव्य के अभाव में भी पर्याय परिवर्तन सम्भव है तो फिर कालद्रव्य को स्वतन्त्र मानने का क्या औचित्य है ? यदि यह माना जाय कि अलोकाकाश में पर्याय परिवर्तन नहीं होता है तो द्रव्य लक्षण दोषग्रसित हो जायेगा।
इसका समाधान देते हुए कहा गया है कि आकाश एक अखण्ड द्रव्य है। इसके लोकाकाश एवं अलोकाकाश ये भेद वैचारिक हैं। अतः लोकाकाश में होने वाला परिवर्तन ही अलोकाकाश में घटित हो जाता है; क्योंकि किसी द्रव्य के एक अंश में होने वाला परिवर्तन सम्पूर्ण द्रव्य का परिवर्तन माना जाता है। लोकाकाश में कालद्रव्य के निमित्त से परिणमन होता है और अलोकाकाश का परिणमन भी वही है, अतः दोनों के पर्याय परिवर्तन का सहकारी कारण काल ही है। - इस प्रकार काल को स्वतन्त्र द्रव्य के साथ जीव-अजीव की पर्याय रूप भी माना गया है। वस्तुतः ये दोनों कथन विरोधी नहीं वरन सापेक्ष हैं। निश्चयदृष्टि से काल जीव-अजीव की पर्याय है और व्यवहारदृष्टि में यह द्रव्य है। उसे द्रव्य मानने का कारण उसकी उपयोगिता है। कहा गया है 'उपकारकं द्रव्यं तत्त्वार्थसूत्र में भी वर्तना, परिणमन, क्रिया, परत्व, अपरत्व आदि काल के उपकार कहे गये हैं।
काल के दो विभाग किए गये हैं -
(१) निश्चयकाल और (२) व्यवहारकाल
५२ तत्त्वार्थसूत्र १/२२ । Jain Education International
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