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पर्याय परिणति में क्षण (काल) निमित्त होता है। परिणामित होने का स्वभाव प्रत्येक द्रव्य का अपना होता है अर्थात् परिणमन का उपादान कारण तो द्रव्य स्वयं ही होता है किन्तु उसका निमित्त कारण काल है क्योंकि काल के निमित्त से द्रव्य की परिणमन शक्ति अभिव्यक्त होती है। जैसे बीज में वृक्ष बनने की सामर्थ्य है, परन्तु वह एक निश्चित कालक्रम में ही वृक्ष बनता है। अतः वृक्ष का उपादान कारण बीज तथा निमित्त कारण 'काल' है।
जैनदर्शन में षट्द्रव्य के अन्तर्गत पांच द्रव्य अस्तिकायरूप तथा काल को अनस्तिकाय कहा गया है। इसका कारण यह है कि काल के अतिरिक्त शेष पांचों द्रव्यों में प्रदेशप्रचयत्व अर्थात् विस्तार होता है जबकि काल में प्रदेशप्रचयत्व नहीं है। प्रत्येक कालाणु की स्वतन्त्र सत्ता है, अतः उनका स्कन्ध नहीं बनता है । भूतं चला गया है और भविष्य अभी आया नहीं है; अतः इनका स्कन्ध नहीं बनता क्योंकि... प्रत्येक क्षण की अपनी स्वतन्त्र सत्ता है और वर्तमान एक समय का होता है। उसका तिर्यक्प्रचयत्व नहीं होता । काल का मात्र ऊर्ध्वप्रचय होता है जबकि अस्तिकायिकं द्रव्यों का तिर्यक् प्रचय होता है। यही कारण है कि काल अनस्तिकाय द्रव्य कहलाता
है ।
काल स्वतन्त्र द्रव्य है या नहीं इस प्रश्न के सम्बन्ध में प्राचीन काल में मतभेद देखे जाते हैं। जैनदर्शन में पंचास्तिकाय की अवधारणा से जो षद्रव्य की अवधारणा का विकास हुआ है, उससे यह सिद्ध होता है कि जैंनदर्शन में काल द्रव्य की स्वतन्त्र सत्ता को कालान्तर में स्वीकार किया गया है।
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काल स्वतन्त्र द्रव्य है या नहीं इस मतभेद के संकेत तत्त्वार्थसूत्र और विशेषावश्यकभाष्य में प्राप्त होते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने वाली और न मानने वाली ऐसी दो विचारधारायें विशेषावश्यकभाष्य के काल तक अर्थात् विक्रम की सातवीं शती तक रही हैं।
काल की स्वतन्त्र सत्ता को अस्वीकार करनेवाले विचारक काल को जीव एवं पुद्गल की पर्याय मानते हैं। इनके अनुसार जीव एवं अजीव की पर्याय से पृथक काल कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है ।
दूसरी विचारधारा काल की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार करती है। उत्तराध्ययनसूत्र में काल को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार किया गया है। काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने का तार्किक आधार यह है कि जैसे गति और स्थिति का
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