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________________ १६७ इस प्रकार पुदगलास्तिकाय के चार रूप होते हैं - १ स्कन्ध २. देश ३. प्रदेश और ४. परमाणु। षद्रव्यों में पुद्गलास्तिकाय एक मात्र मूर्त द्रव्य है। शेष चारों अमूर्त हैं अर्थात् वर्ण, गन्ध, रस स्पर्श से रहित हैं। पुद्गलद्रव्य मूर्त होने से वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श गुण युक्त है। अतः वह इन्द्रियग्राह्य भी है। जीवास्तिकाय या जीवद्रव्य उत्तराध्ययनसूत्र के अट्ठाइसवें अध्ययन में जीव का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग ये जीव के लक्षण हैं। तत्त्वार्थसूत्र में ज्ञान, दर्शन आदि गुणों को उपयोग में समाहित करते हुए कहा गया है ‘उपयोगो जीव लक्षणं' अर्थात् जीव का लक्षण उपयोग या चेतना है। व्युत्पत्तिपरक अर्थ के अनुसार ‘जीवति प्राणान् धारयति इति जीवः' अर्थात् जो जीता है या प्राणों को धारण करता है वह जीव है। उत्तराध्ययनसूत्र के छत्तीसवें अध्ययन में जीवद्रव्य के प्रकारों का अति व्यापक रूप से वर्णन किया गया है। हम जीव (आत्मा) के स्वरूप, लक्षण, कार्य और प्रकारों की चर्चा इस शोध प्रबन्ध के पंचम अध्याय "उत्तराध्ययन में प्रतिपादित आत्ममीमांसा' में स्वतन्त्र रूप से करेंगे। अतः जीव सम्बन्धी चर्चा को यहीं विराम देते हैं। इच्छुक पाठक जीव की विस्तृतचर्चा के लिए सम्बन्धित स्थल देखें। कालद्रव्य उत्तराध्ययनसूत्र में षद्रव्यों की अवधारणा में 'काल' को एक स्वतन्त्र द्रव्य. के रूप में स्वीकार किया गया है और उसे 'वर्तना' लक्षण वाला कहा गया है। दूसरे शब्दों में समस्त द्रव्यों के वर्तना अर्थात् परिणमन का असम्धारण निमित्त 'काल' द्रव्य है। इस प्रकार काल, द्रव्यों में होने वाले पर्याय परिवर्तन का कारण है। पर्यायें प्रत्येक क्षण में उत्पन्न एवं नष्ट होती हैं। अतः समस्त द्रव्यों की - उत्तराध्ययनसूत्र २८/११। ४६ 'नाणं च सणं चेव, चरितं च तवो तहा। दीरियं उवओगो य, एवं जीवस्स लक्खणं ।' ५० तत्त्वार्थसूत्र २/८ । ५१ 'वत्तणालक्खणो कालो - उत्तराध्ययनसूत्र २८/१०। . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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