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पुद्गलद्रव्य या पुद्गलास्तिकाय
पुद्गल शब्द का प्रयोग मुख्यतः जैनदर्शन में ही मिलता है। अन्य दर्शन में इसके स्थान पर प्रकृति, परमाणु आदि शब्द पाये जाते हैं। बौद्धदर्शन में अवश्य पुद्गल शब्द 'जीव' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। उसमें 'पोग्गल-पंञति' नामक एक ग्रन्थ है, जिसमें जीवों के प्रकारों का विवेचन है।
जैनागम भगवतीसूत्र में भी पुद्गल शब्द को जीव का वाचक स्वीकार किया गया है। पर यहां उसे शरीर की अपेक्षा से पुद्गल कहा गया है। परन्तु कालान्तर में यह पुद्गल शब्द भौतिक पदार्थ के अर्थ में रूढ़ हो गया। आधुनिक विज्ञान में इससे मिलता जुलता शब्द मेटर (Matter) है।
उत्तराध्ययनसत्र में सभी द्रव्यों का लक्षण बताते हुए पुदगल का भी लक्षण बताया है, परन्तु यह इसका स्वरूपदर्शक लक्षण है - शब्द, अन्धकार, उद्योत (प्रकाश), प्रभा (कान्ति), छाया, आतप (धूप), वर्ण (रंग), गन्ध, रस
और स्पर्श ये सब पुद्गल के लक्षण हैं। 'बृहद्रव्यसंग्रह' एवं 'नवतत्त्वप्रकरण' इन दोनों ग्रन्थों में भी पुद्गल का यही लक्षण दिया गया है।"
पुद्गल शब्द की व्युत्पत्ति 'पूरणात् पुद्गलयतीति पुद्गलः' इस प्रकार से की जाती है जिसका अर्थ है: जो द्रव्य सम्पृक्त एवं विभक्त होता रहता है वह पुद्गल है। पुद्गल का स्वभाव पूरण, इकट्ठा होना (संघात) तथा अलग-अलग होना (विघात) है।
___ उत्तराध्ययनसूत्र में पुद्गलास्तिकाय के निम्न चार भेद किये गये हैंस्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु।
४५ भगवती १३/४/५६
- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ६०१)। . ४६ 'सद्दऽत्थयार-उज्जोओ, पहा छायाऽऽवे इ वा । वण्ण-रस-गंध-फासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं ।।' - उत्तराध्ययनसूत्र २८/१२ । ४७ (क) वृहद्रव्यसंग्रह १६; (ख) नवतत्त्वप्रकरण ११। ४८ 'खंधा य खंधदेसा य, तप्पएसा तहेव य ।
परमाणणो य बोदला. स्वविणो य चरबिहा ।।' - उत्तराध्ययनसत्र ३६/१० । Jain Education International
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