________________
आकाश है। 40 यह जीव और अजीव द्रव्यों को स्थान प्रदान करता है। उत्तराध्ययनसूत्र में आकाश को सभी द्रव्यों का आधारभूत भाजन पात्र कहा गया है, अर्थात् सभी द्रव्यों को रहने के लिए स्थान देना आकाश द्रव्य का लक्षण है । "
१६४
जैनाचार्यों ने आकाश के दो विभाग किये हैं- लोकाकाश एवं अलोकाकाश । विश्व में व्याप्त आकाश स्थान है वह लोकाकाश है एवं विश्व के बाहर जो रिक्त स्थान है वह अलोकाकाश है। 42 उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है जहां मात्र आकाश द्रव्य की सत्ता है, वह अलोक है । 43 लोक की एक सीमा है। जो उस सीमा को निर्धारित करता है वह अलोक है । अलोक की कोई सीमा नहीं है। वह अनन्त है। जो असीम होता है वह अनन्तप्रदेशी होता है। अतः आकाश अनन्तप्रदेशी है।
धर्म एवं अधर्म की भांति आकाश में भी देश-प्रदेश की कल्पना. वैचारिक स्तर पर ही की जा सकती है। वस्तुतः तो आकाश भी एक और अखण्ड द्रव्य है। उसमें सत्ता के स्तर पर विभाजन कर पाना सम्भव नहीं है, क्योंकि यह सर्वव्यापी है। जैनाचार्यों के अनुसार प्रत्येक द्रव्य आकाश में है और प्रत्येक द्रव्य में आकाश है। सामान्यतः ठोस समझे जाने वाले पिण्डों में भी रिक्त स्थान (आकाश) होता है। एक प्रदेश में भी विपुल मात्रा में स्थान होता है तभी उसमें अनन्त पुद्गल परमाणुओं को अपने में समायोजित करने की शक्ति सम्भव है। भगवतीसूत्र में कहा है, 'एक परमाणु या दो परमाणुओं से व्याप्त आकाश - प्रदेश में सौ सौ करोड़ अथवा एक हजार करोड़ परमाणु भी समा सकते हैं 4, व्यवहार में भी हम देखते हैं कि एक दूध से भरे हुए ग्लास में डाली गयी शक्कर, दूध या जल से भरे हुए ग्लास में डाला गया नमक जल में समा जाता है; उसका कारण ग्लास में रहा हुआ आकाश है। आधुनिक वैज्ञानिकों का भी यह मानना है कि ठोस परमाणु में भी पर्याप्त रूप से रिक्त स्थान होता है।
1
"
४० तत्त्वार्थसूत्र ५/१८ |
४१ 'भायणं सव्वंदव्वाणं, नहं ओगाहलक्खणं ।। ' ४२ वृहद्रव्यसंग्रह गाथा १६ । ४३ 'अजीवदेसमागासे, अलोए से वियाहिए ।।' ४४ भगवती १३/४ / ५६
Jain Education International
- उत्तराध्ययनसूत्र २८ /६ ।
उत्तराध्ययनसूत्र ३६ / २ ।
( अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ६०१ ) ।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org